Anish Gwande
अनीश गवांडे
विदेशी विश्विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त युवा साहित्यकार, शोधकर्ता, और राजनेता के रूप में भूमिका निभाने वाले अनीश गवांडे से कॉलम शब्द संवाद हेतु अरमान नदीम की खास बातचीत। ।
हम ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जहाँ इंसान की, पार्टी की, विचारधारा रही ही नहीं है। - अनीश गवांडे
अनीश गवांडे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। वे पार्टी की प्रगतिशील नीतियों और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
• सह-संस्थापक, पिंक लिस्ट इंडिया:
यह भारत का पहला अभिलेख (archive) है, जिसमें एलजीबीटी+ अधिकारों के समर्थन में खड़े होने वाले राजनेताओं का रिकॉर्ड रखा जाता है। इस पहल में गवांडे अग्रणी भूमिका निभाते हैं और समानता एवं समावेशन के मुद्दों पर लगातार चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।
• दारा शिकोह फ़ेलोशिप:
गवांडे इस अंतर-विषयक कला आवासीय कार्यक्रम (interdisciplinary arts residency) का संचालन करते हैं, जो जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में आयोजित होता है।
• रोड्स स्कॉलर:
उन्हें प्रतिष्ठित Rhodes India Scholarship से सम्मानित किया गया है और उन्होंने University of Oxford से M.Phil. in Intellectual History की पढ़ाई की है।
शैक्षणिक पृष्ठभूमि और रुचियाँ
• कोलंबिया विश्वविद्यालय से स्नातक:
2018 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से Comparative Literature and Society में बी.ए. किया। यहां उन्होंने दक्षिण एशिया और फ्रैंकोफोन पश्चिम अफ्रीका में कानून, साहित्य और राजनीति के अंतर्संबंध (intersection) पर अध्ययन किया।
सक्रियता और राजनीतिक आकांक्षाएँ
• LGBTQ+ अधिकारों की वकालत:
वे भारतीय राजनीति में क्वीयर प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और आशा रखते हैं कि आने वाले पाँच वर्षों में कोई क्वीयर व्यक्ति संसद या विधानमंडल में निर्वाचित होगा
• लेखन :
उन्होंने प्रमुख प्रकाशनों के लिए लेख लिखे हैं, देश के बड़े साहित्यिक महोत्सवों में वक्ता के रूप में भाग लिया है, और प्रतिष्ठित कला दीर्घाओं में प्रदर्शनियों का क्यूरेशन किया है।
• मराठी में अनुवाद:
अपने अवकाश में वे मराठी कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हैं।
अरमान :- आपकी जो शुरुआत है, फिर चाहे वह एकेडमिक्स हो, आपका साहित्य में जिस तरह की दिलचस्पी है और उसके बाद में अगर हम देखते हैं, मौजूदा वक्त में आप राष्ट्रवादी कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में आज स्थापित हैं। अगर आप अपने पूरे सफर को गहराई से बताएं कि यह किस तरीके से शुरू हुआ?
अनीश:- मैं मुंबई में पला-बढ़ा और यहीं मेरी स्कूलिंग हुई। और अगर मैं अपनी शुरुआती स्कूल की बात करूँ तो मैं एक ऐसे स्कूल में भी पढ़ा हूँ, जहां एक क्लास में मात्र 20 से 25 विद्यार्थी हुआ करते थे, जिससे हम कहते हैं ना 'घर के सबसे जो नज़दीक स्कूल थी'। और उसके बाद मैं मुंबई की सबसे प्रसिद्ध स्कूल में भी पढ़ा, जहाँ उद्योगपति, राजनेताओं, कलाकारों के और बड़े नाम अगर हम कहें, उनके बच्चे भी वहाँ पढ़े। तो, मैंने दोनों चीजों का अनुभव किया। वहाँ पर मुझे आर्ट्स पढ़ने का मौका मिला, जबकि दसवीं में मेरे अंक काफी अच्छे आए थे और घरवालों ने कहा था कि साइंस क्यों नहीं पढ़ रहे हो? लेकिन मेरा फैसला था आर्ट्स लेकर लिटरेचर पढ़ना, सोशियोलॉजी पढ़ना। 12वीं तक मैं मुंबई में ही रहा। मैं थिएटर बहुत किया करता था। और राजनीति के अगर मैं बात करूँ तो स्कूल से ही इसमें रुचि शुरू हो चुकी थी क्योंकि पापा और मैं हर शाम न्यूज़ देखा करते थे। और वह 2012 से 2014 का समय था, जिस वक्त मोदी जी राष्ट्रीय मंच पर प्रकट हो गए थे। और वह समय यह भी था कि जब पापा अर्णब गोस्वामी को देखना चाहते थे और मैं बरखा दत्त जी को सुनना चाहता था। रिमोट पर झगड़ा होते-होते राजनीति में रुचि बढ़ने लगी। मैंने एक फैसला यह भी कर लिया था कि एक वॉलंटियर के तौर पर मैं मिलिंद देवड़ा जी के साथ काम करूँगा। 2014 में मेरा यह सफर शुरू हो गया। मैं दरवाजे खटखटा रहा था, 17 साल की उम्र में। इसके बाद मैं कोलंबिया यूनिवर्सिटी गया। वहाँ पर मैं लिटरेचर पढ़ रहा था। वहाँ मैं बहुत कुछ सीखा और पढ़ा क्योंकि मैंने यह भी सोचा कि अगर विदेश जा रहे हैं तो वहाँ के बारे में जानना चाहिए। फ्रेंच लैंग्वेज सीखी। उसके बाद मैं वेस्ट अफ्रीका में सेनेगल में गया और उनके पहले प्रेसिडेंट लियोपोल्ड सेडर सेनघोर की तुलना मैं सिर्फ नेहरू जी से कर सकता हूँ क्योंकि दोनों ही साहित्यिक क्षेत्र से राजनीति में उतरे थे। उन्हीं पर मैंने अपना थीसिस भी लिखा। ग्रेजुएशन के कुछ दिनों पहले ही मुझे मिलिंद जी ने कॉल किया और कहा, “क्या वापस आओगे और मेरे कैंपेन में शामिल होंगे?” और जैसे ही मेरी ग्रेजुएशन पूरी हुई, उसके दो दिन बाद ही मैं मुंबई आ चुका था। और इस वक्त 2019 की चुनाव की तैयारी 18 में चल रही थी और उस वक्त मैं महाराष्ट्र कांग्रेस के साथ काम कर रहा था। कह सकते हैं कि सीधे तौर पर मैंने उस वक्त राजनीति में काम करना शुरू किया। काफी ग्राउंड लेवल से अगर मैं कहूँ तो मैंने काम शुरू किया और लोगों को जोड़ने का, विचारधारा के साथ जोड़ने का काम किया। लेकिन जैसा आप भी जानते हैं कि हम 2019 का चुनाव हार गए। उसके बाद मुझसे भी सवाल पूछे जाने लगे, “अमेरिका छोड़कर तो आप यहाँ आए हो?” उस दिन से मैं सुशिक्षित बेरोजगार बन गया। राजनीति में आने के बाद प्राइवेट सेक्टर में आपको लोग कम ही काम देते हैं। उस वक्त यह और ज़्यादा मुश्किल हो गया क्योंकि अगर आप किसी भी तरह का राजनीतिक ओपीनियन रखते हैं तो कहा जाता है कि आपको नौकरी नहीं मिलेगी। उसके बाद मैंने स्कॉलरशिप के लिए प्रयास किया और सौभाग्य से मुझे रोड्स स्कॉलरशिप मिल गई। मुझे फंडिंग मिली ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में जाने के लिए। 2020 से 22 में ऑक्सफोर्ड चला गया, लेकिन इससे पहले जब हम कोविड काल में थे, तब वहाँ हमने फंड रेज़िंग की शुरुआत की। तकरीबन तीन-साढ़े तीन करोड़ का हमने फंड जुटाया और लोगों की मदद की। और ऑक्सफोर्ड जाने के बाद भी यह काम जारी रहा। बाद में ख्याल आया कि हिंदुस्तान वापस लौट जाएँ। मैं दिल्ली आया क्योंकि राजनीति में अगर आपको कुछ सीखना है तो दिल्ली आना आपको अनिवार्य हो जाता है। और अब जब हम दिल्ली में हैं, तो एक पद भी मिल गया है, राष्ट्रवादी कांग्रेस में राष्ट्रीय प्रवक्ता का।
अरमान :- आपने इनिशियल स्टेज पर कांग्रेस का जिक्र किया कि शुरुआती दिनों में आप कांग्रेस के साथ थे और मुझे लगता है राजनीति में जब कोई नौजवान आता है जो संघ के विचारधारा में नहीं जाना चाहता, उसकी पहली पसंद कांग्रेस रहती है लेकिन युवा कांग्रेस के साथ में टिक क्यों नहीं पा रहा है? आपका खुद का भी इसका अनुभव है, इसे आप कैसे देखते हैं?
अनीश:- कांग्रेस पार्टी के साथ हमारा पुराना नाता रहा है और आज भी हम कांग्रेस विचारधारा वाली पार्टी में ही हैं। हमारे साथ एक विचित्र स्थिति आ गई थी। मेरे मैंटर और मित्र मिलिंद देवड़ा जी कांग्रेस छोड़ गए, तो कांग्रेस पार्टी में हमें गाइडेंस देने वाले कोई रहे नहीं। राजनीति में पार्टी बड़ी ही महत्वपूर्ण होती है। विचारधारा बहुत महत्वपूर्ण होती है। राजनीति में इंसान सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसमें देखा जाता है कि आप किसके साथ काम कर रहे हैं, आप किसके साथ जुड़े हुए हैं। यह देखना बहुत महत्वपूर्ण होता है। एक पीपल्स प्रोफेशन है। अगर आप किसी के साथ कनेक्ट नहीं हो पाए तो आप राजनीति में टिक नहीं पाओगे। मिलिंद जी एकनाथ शिंदे वाले शिवसेना में चले गए और उन्होंने हमसे पूछा कि क्या आप शिवसेना में आएँगे? उस वक्त मैंने कहा था, “वैचारिक स्तर पर मैं वहाँ नहीं आ सकता।” विचारधारा छोड़कर मैं इस वक्त शिवसेना-एकनाथ शिंदे जी के साथ नहीं आ सकता। और उसके बाद में सुप्रिया ताई से मिला। पहले कॉन्फ्रेंस में मिला था, इससे पहले हमारा किसी भी स्तर पर मिलना नहीं था। वह मुझे जानते थे लेकिन एक कोलंबिया और एक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट के तौर पर। जब उनसे मुलाकात हुई तो लोकसभा चुनाव से पहले एनसीपी (शरदचंद्र पवार) में उन्होंने मुझे पार्टी के लिए काम करने का अवसर दिया। उस चुनाव में हम 10 में से 8 लोकसभा सीट जीत गए। राजनीति में पता नहीं चलता कब कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं और लोगों को यह मालूम नहीं पड़ता कि हम राजनीति में उतरे तो उतरे कैसे। अगर आपका कोई गॉडफादर ना हो, अगर आपके पास राजनीतिक पहचान ना हो, परिवार वाले राजनीति में ना हो, इस परिस्थिति में बहुत मुश्किल हो जाता है। सबसे बड़ा सवाल व्यक्ति के सामने रहता है कि शुरुआत कहाँ से हो। शुरुआत मुझे मिलिंद जी के साथ मिला, इसके लिए मैं शुक्रगुजार हूँ। उसके बाद जब आप राजनीति में खरे उतरते हो, खुद की एक पहचान तैयार करते हो। पार्टी में फूट हुई तो वह मुश्किल समय था पार्टी के लिए। यह होता ही है कि जब आप किसी की मदद उनके मुश्किल समय में करते हैं, तो वह अच्छे समय में आपकी मदद करते हैं।
अरमान :- आपने एक बहुत अच्छी बात कही कि राजनीति में विचारधारा महत्वपूर्ण होती है और उसी तरीके से इंसान भी महत्वपूर्ण होता है। मैं लगातार युवा नेताओं से बात करता रहता हूँ लेकिन एक स्तर पर यह भी मालूम पड़ता है कि एक वक्त में ही दो अलग-अलग विचारधाराओं के साथ में हमारे युवा जुड़े हैं और उनके लिए वह काम भी कर रहे हैं। तो अब यहाँ तो विचारधारा एक दूर कहीं बस्ते में नज़र आती है, इसे आप कैसे देखते हैं?
अनीश:- देखिए, आज स्थिति गंभीर है। मैंने 2014 में ही एक आर्टिकल लिखा था "डेथ ऑफ़ आईडियोलॉजी" (विचारधारा की मौत)। हम ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जहाँ इंसान की, पार्टी की, विचारधारा रही ही नहीं है। तो, आज इस दौर में हमें विचारधारा का फिर से निर्माण करना होगा। जब तक हम उस विचारधारा का निर्माण नहीं कर पाते, फिर दूसरों को कहना कि आप सिर्फ इलेक्शन के वक्त नज़र आते हो और विचारधारा को थाम नहीं रहे हो, यह कहना भी गलत है। हमने अपनी राजनीतिक कल्पना शक्ति को सीमित रखा है। हमने वही मुद्दे इतने रगड़-रगड़ के बोले हैं कि अब कोई हमारी विचारधारा में भी विश्वास नहीं करता। अब आत्म-चिंतन बहुत जरूरी है। फिर चाहे वह कोई भी विचारधारा की पार्टी हो, अगर उसके मानने वाले यह खुद से आत्म-चिंतन नहीं करते कि और लोग हमारी विचारधारा को क्यों नहीं मान रहे, तब तक वह विचारधारा बढ़ नहीं सकती। आप कभी भी किसी पर भी विचारधारा को थोप नहीं सकते। और अगर हम कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी आज विचारधारा देश पर थोप रही है, हम यह भी मान सकते हैं कि हम अपनी विचारधारा को लोगों तक पहुँचाने में असमर्थ रहे और इस विचारधारा को जीवित रखने में असफल रहे। आज हमारे सामने जो चुनौती है वह सिर्फ चुनाव जीतने की नहीं है। चुनाव आते-जाते रहेंगे, नेता आते-जाते रहेंगे, लोगों को टोपी लगाते रहेंगे। अगर आपको विचारधारा को जीवित रखना है तो एक राजनीतिक कल्पना शक्ति का होना बहुत जरूरी है और उसे बढ़ाना होगा। आज हम महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचारधारा के आधार पर आवाज़ नहीं उठाते। आज का जो युग सोशल मीडिया और AI का है, अगर हम बात करें तो फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियाँ वह सिर्फ आपकी प्राइवेसी नहीं, बल्कि आपकी पहचान भी छीन रही है। आप जो डेटा चैट जीपीटी में डालते हो, AI में डालते हो, वह चीज़ सीख कर AI आपको ही रिप्लेस कर सकता है। अभी यह देखना बहुत जरूरी है कि इन नए मुद्दों पर जो कि लोगों के मुद्दे हैं और इन सबको लेकर हम अपनी विचारधारा को सामने रखते हुए एक नई अप्रोच कैसे पेश कर सकते हैं। हमने महाराष्ट्र में इसका प्रयास किया था। सर्वाइकल कैंसर की वैक्सीन है, वह सरकार के द्वारा बहुत से वादों के बावजूद लोगों तक नहीं पहुँची है। हम महिला सम्मान की बात करते हैं, सुरक्षा की बात करते हैं लेकिन जो सर्वाइकल कैंसर वैक्सीन है जो सरकार दे सकती है... हम पुराने मुद्दों पर अटके हुए हैं। आप कोई भी भाषण उठाकर देख लीजिए, चाहे वह 70 के दशक से हो और आज के वक्त में दिया गया हो, उसमें आपको कोई फर्क नज़र नहीं आएगा। नई समस्याओं के लिए हमें नए समाधान चाहिए।
अरमान :- आप पिकल इंडिया के संपादक हैं और राजनीति में मुखर रहते हैं। सवाल है कि क्यूर कम्युनिटी का जो पॉलिटिकल अब्सेंस है, इसे आप कैसे देखते हैं?
अनीश:- इस देश में अगर कोई भी सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन शुरू हुआ है, तो वह धीरे-धीरे शुरू हुई है। फिर चाहे वह दलित अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू हुआ था, वह हज़ारों साल पहले शुरू हुई थी। उसमें अगर हम देखें भक्ति रस के जो कवि हैं, तुकाराम जी हो या रविदास हो, फिर कबीर हो, उस भक्ति मूवमेंट से लेकर जातिवाद के खिलाफ जो एक आंदोलन शुरू हुआ है, वह आज तक चलता आ रहा है। आप अगर धर्म के नाम पर जो अन्याय होते हैं, इसके खिलाफ हम आवाज़ उठा रहे हैं, उसका अगर हम इतिहास पढ़ें, वह ब्रिटिश राज के दौरान डिवाइड एंड रूल पॉलिसी के दौरान लाया गया था, जिसमें हिंदू और मुसलमान को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना और उन्हें अलग रखना। और उस वक्त जब लोगों ने आवाज़ उठाई थी और अगर हम वह इतिहास पढ़ते हैं, तो हम समझ पाएँगे कि आज हम जो इस हिंदुत्ववाद के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, हम जो आज माइनॉरिटी के खिलाफ होते जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, उसका इतिहास भी 100 से ज़्यादा सालों तक पीछे चला जाता है। और वही जब हम एलजीबीटी का मुद्दा देखते हैं, बाबा साहब अंबेडकर ने जब वह एक वकील थे, तब आर.डी. कर्वे ने “समाज स्वास्थ्य” नामक एक पत्रिका प्रकाशित की थी जो 1927 से 1953 तक चली। इस पत्रिका में, उन्होंने यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, और सामाजिक सुधारों के बारे में लिखा। और बाबा साहब अंबेडकर ने कोर्ट में आर.डी. कर्वे को डिफेंड किया था क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि उनकी मैगज़ीन में सेक्स एजुकेशन और होमोसेक्सुअलिटी के बारे में एक प्रोग्रेसिव विचारधारा के तहत लोगों को बताया जा रहा था। जब कोई और उनके लिए खड़ा होने के लिए तैयार नहीं था, बाबा साहब अंबेडकर थे जो उनके लिए खड़े हुए। नामदेव ढसाळ जो दलित पैंथर के हेड थे, उन्होंने 90 के दशक में ट्रांसजेंडर के साथ और सेक्स वर्कर्स के साथ एक मोर्चा निकाला था, शरद पवार जी के घर तक। उन्होंने एलजीबीटी अधिकारों के बारे में बात की। समाज में एलजीबीटी के मुद्दे राजनीति में आए हैं लेकिन जिस गति से आने चाहिए थे, वह गति नहीं मिली है। एक वक्त आया था जब हमारे देश में ट्रांसजेंडर महिलाएँ चुनाव लड़कर जीत कर आ रही थी। कमला जान जी कॉरपोरेटर बनी थी, शबनम मौसी बानो ने इतिहास रचा था जब वह विधायक बनी थी मध्य प्रदेश में। सुप्रीम कोर्ट का नालसा जजमेंट अगर आप देखेंगे 2014 का, सेक्शन 377 का अगर हम जजमेंट देखें, आपको यह समझ आएगा कि यह जजमेंट 5-10 सालों में नहीं आते। इन ऐतिहासिक फैसलों के पीछे 100 साल लग जाते हैं। अभी महान शख्सियत जिनका योगदान इन सब में रहा, इन सभी का काम आगे बढ़ाता है पिकल इंडिया।
अरमान :- राजनीतिक दल हमेशा कोशिश करते हैं कि उनके स्पोक पर्सन की हैसियत से जब कोई व्यक्ति आए, वह इतना कौशल रखता हो कि अगर किसी चीज़ की नॉलेज ना भी हो, तब भी वह उस वक्त उस स्थिति को सहजता के साथ हैंडल कर ले। आपकी नज़र में एक राजनीतिक पार्टी का स्पोकपर्सन होना कितना मुश्किल हो सकता है?
अनीश:- मेरी नज़र में स्पोकपर्सन बनने का जो सवाल है, वह हर पक्ष में अलग-अलग होता है। हर राजनीतिक पक्ष में एक ऑफिशियल टाइटल होता है। उसके पीछे आपको बहुत सारी जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं। वह सभी के लिए अलग-अलग हो सकती हैं। अगर आप मेरा उदाहरण लें, मुझे पूरी इंग्लिश मीडिया रूम का इंचार्ज बनाया हुआ है। इस वजह से जिस भी तरह का अंग्रेजी मीडिया के साथ कोऑर्डिनेशन होता है, जिस भी तरह की प्रेस रिलीज़ जाती है ऑफिशियल पार्टी की तरफ से, सब मेरे पास से होकर निकलती है। जो भी अंग्रेजी में रिसर्च किया जाता है, वह मेरे पास होता है। स्पोकपर्सन का दर्जा किसी को तब दिया जाता है जब वह पार्टी के लिए बहुत काम कर रहा हो या और दीगर मोर्चे पर भी काम कर रहा हो। उसके बाद आपको सम्मान मिलता है पार्टी को रिप्रेज़ेंट करने का क्योंकि राजनीति में तो वक्ता सभी अच्छे होते हैं, लेकिन जिन वक्ताओं को पार्टी की पोजीशन पेश करने का मौका दिया जाता है, वह वही होते हैं जो पार्टी के लिए कुछ बढ़कर काम करते हैं।
अरमान :- राजनीति की जब हम बात करते हैं तो कयास नहीं लगाए जा सकते। कभी भी कुछ भी हो सकता है और अगर मैं महाराष्ट्र की बात करूँ तो यहाँ तो बिल्कुल भी कयास नहीं लगाए जा सकते। कब किस पार्टी का विभाजन हो जाए, कौन किसके साथ विलय हो जाए, इसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है। सीधा सवाल यही रहेगा, महाराष्ट्र की राजनीति इतनी अप्रत्याशित क्यों है?
अनीश:- जब मैंने राजनीति शुरू की थी तब मैं कांग्रेस पार्टी के साथ था। उस वक्त हम शिवसेना के खिलाफ थे। वक्त आगे बढ़ा और 2019 आया और हम शिवसेना के साथ गठबंधन में आ गए। और उस शिवसेना में बाद में फूट आ गई। राष्ट्रवादी में फूट आ गई, राष्ट्रवादी के दो भाग हो गए। 2019 में जो निर्णय लिया गया महा विकास अघाड़ी तैयार करने का, उसके बाद महाराष्ट्र की राजनीति के लैंडस्केप में बड़ा बदलाव देखने को मिला। मुझे लगता है उसे सेटल होने में थोड़ा वक्त लगेगा। क्योंकि जो विचारधाराएँ थीं, वह पूरी तरीके से बदल गई हैं। एक ऐसा सिस्टम बन चुका है जिनकी विचारधाराएँ एक नहीं हैं, वह पक्ष भी एक साथ आ रहे हैं और सत्ता में आ रहे हैं। अगर आप यह सब देखते हैं, तो हम निश्चित ही कह सकते हैं महाराष्ट्र में एक पॉलिटिकल टर्न हो रहा है। मुझे लगता है उसे 10 साल तो लगेंगे सेटल होने में और धीरे-धीरे हमें यह भी मालूम पड़ेगा कि इन छह राजनीतिक दलों में से कौन आगे रहेगा और कौन पिछड़ेगा। इस वक्त महाराष्ट्र की राजनीति में कह सकते हैं कि भूकंप आ चुका है। लेकिन अगर हम इसे दूसरे नज़रिए से देखें तो इसका एक जो फायदा सीधे तौर पर मिला है, तो वह युवा राजनेताओं को मिला है। अगर मैं पूरी ईमानदारी से कहूँ, यह स्प्लिट नहीं होता तो शायद मुझे नेशनल पार्टी में एक युवा को इतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिलती। यह जिम्मेदारी शायद मेरे सीनियर्स के पास होती। अगर मैं राष्ट्रवादी कांग्रेस की बात करूँ जिसमें मौजूदा वक्त में मैं प्रवक्ता हूँ, तो हमारी पार्टी से फहद अहमद को मौका मिला है। अगर राष्ट्रवादी में विभाजन नहीं होता तो वह नवाब मलिक के खिलाफ टिकट माँग भी नहीं सकते थे और मिलता भी नहीं। हमें यह भी देखना चाहिए कि जब एक बड़ा राजनीतिक शिफ्ट होता है एक राज्य में, इसका असर दो-तीन चुनाव तक तो रहता ही है।
अरमान :- मौजूदा वक्त में जिस तरह का सिनेरियो बना महाराष्ट्र में भाषा को लेकर, मराठी को लेकर, क्या महाराष्ट्र की राजनीतिक दल बहुत अधिक अग्रेसन के अंदर हैं क्योंकि अगर हम यह भी देखें तो वह सिर्फ अग्रेसन शिवसेना और उनका विभाजन को उसी में नज़र आता है? भाषा का मुद्दा महाराष्ट्र की राजनीति में बहुत बड़ा फैक्टर बन चुका है या फिर वह सिर्फ चंद राजनीतिक दलों और उन्हीं के कार्यकर्ताओं में अग्रेसन देखने को मिलता है? आप इसे कैसे देखते हैं?
अनीश:- यह देखिए कि कितने लोगों को पीटा गया है। यह भी देखिए कि वह लोग कहाँ हैं। फिर देखिए कि उन्हें पीटने वाले कौन हैं। इन सब को देखने के बाद में आपको पता चलेगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ हद तक गुंडागर्दी है। उत्तर प्रदेश जितनी नहीं है, बिहार जितनी नहीं है, लेकिन गुंडागर्दी है। जब कुणाल कामरा ने एकनाथ शिंदे जी के खिलाफ गाना बनाया था, जब हैबिटेट को भी तोड़ दिया गया था, वह तो एकनाथ शिंदे जी की शिवसेना ने तोड़ा था। प्रवीण गायकवाड की है। सोशल रिफॉर्मर है। पिछला भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अटैक ऑर्गेनाइज्ड किया था। जो कार्यकर्ता भड़ककर निर्णय लेते हैं, उससे हम पूरे राज्य का पॉलिटिकल लैंडस्केप नहीं समझ सकते, पूरे पक्ष की भूमिका नहीं समझ सकते। इस वक्त में उद्धव ठाकरे जी की पार्टी, राज ठाकरे जी की पार्टी के साथ अभी हमारे संबंध अच्छे हैं लेकिन हमने लगातार कहा है कि जो कोई भी मारपीट करेगी, उसे पुलिस को गिरफ्तार करना चाहिए, उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन आप यह भी देखिए कि भारतीय जनता पार्टी है और उनके जो एलायंस पार्टनर है, उन्हें यह मारपीट पसंद है, उनके लिए क्योंकि एक फेवरेट नैरेटिव तैयार करता है। मौजूदा वक्त में राज्य सरकार उनके नीचे है, म्युनिसिपैलिटी उनके नीचे है। वह कोई एक्शन लेना चाहते हैं तो लीजिए। अगर मौजूदा वक्त में मेरी भी पार्टी का कोई कार्यकर्ता ऐसा करे, अगर किसी के साथ मेरे कार्यकर्ता ने मारपीट की, ना ही पुलिस मेरे हाथ में है और ना ही प्रशासन मेरे हाथ में है, तो फिर मैं कर क्या सकूँगा? लेकिन मैं यह कर सकूँगा कि पार्टी के डिसिप्लिन गाइडेंस के हिसाब से उसे सजा दूँ, उनको डाँट सकूँगा। लेकिन अगर इससे ज़्यादा कोई एक्शन लेना हो तो फिर वह गवर्नमेंट को लेना चाहिए, पुलिस को लेना चाहिए। महाराष्ट्र में जो आज एक सवाल उठा है भाषा का, वह सिर्फ मराठी बोलने से बड़ा है। 700 पब्लिक लाइब्रेरियन बंद हुई है पिछले 5 साल में। मराठी थिएटर है, उनके लिए आज के वक्त फंडिंग नहीं है। मराठी कल्चर सेंटर के लिए फंडिंग नहीं है। मराठी स्कूल के लिए फंडिंग नहीं है। इस परिस्थिति में जिस राज्य सरकार को मराठी को बढ़ावा देना चाहिए, वो राज्य सरकार अपना काम नहीं कर रही है। इसके खिलाफ हम आवाज़ उठा रहे हैं।
अरमान - कॉलम शब्द संवाद हेतु कीमती समय देने हेतु आपका बहुत बहुत आभार ।
अनीश - धन्यवाद
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