Musa Munir Khan
मूसा मुनीर खान
स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े शिक्षित जमींदार घराने के युवा नेशनल शूटर और कानूनविद मूसा मुनीर ख़ान से शब्द संवाद हेतु अरमान नदीम की खास बातचीत ।
मूसा मुनीर खान — दिल्ली बार काउंसिल में नामांकित अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय के सदस्य, क्ले पिजन शॉटगन शूटिंग के राष्ट्रीय खिलाड़ी तथा 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर केंद्रित इतिहास के स्वतंत्र शोधकर्ता।
अरमान: मौजूदा वक्त में आप वकालत से जुड़े हैं और एक नेशनल लेवल के शूटर भी हैं, और आपका खानदानी सिलसिला क्रांतिकारियों से जुड़ा है। शूटिंग में किस तरह शुरुआत हुई और बाकी दिलचस्पियाँ?
मुनीर खान: अगर मैं अपने शूटिंग करियर की बात करूँ तो बचपन से ही हम घर-परिवार में शिकार के किस्से सुना करते थे, और वह किस्से इतने दिलचस्प हुआ करते थे कि अपने आप में उन्हें देखा करते थे। शूटिंग सिर्फ शिकार के तौर पर ही नहीं, एक स्पोर्ट्स के रूप में भी हमारे सामने है। इन्हीं सब तरह की किस्से सुनकर हम बड़े हुए, लेकिन दौर-ए-हाज़िर है, हंटिंग अलाउड नहीं है, और वही उन बातों का, उस चीज़ का, सबसे बेहतर अल्टरनेट यही है कि उसे स्पोर्ट्स के रूप में देखा जाए। अगर हम उस लेगेसी को आगे लेकर चलते हैं, शूटिंग ही एक ऐसा मीडियम रहा जो हमारी स्किल है, उन्हें हम स्पोर्ट्स के अंदर ला सकते हैं। और यही इकलौता कारण था कि हमने शूटिंग को चुना, और जिसमें ट्रैप इवेंट होता है, उसमें स्पेसिफिकली हम शूटिंग करते हैं। बड़ा ही एडवेंचरस स्पोर्ट्स है। और जहाँ तक वकालत की बात है, उसमें भी एक रिवायत यह रही—हमारे जो परदादा थे, उनकी माँ ने 1894 में ज़मींदारी में से गाँव बेचकर उन्हें लंदन भेजा था वकालत करने के लिए। पहले वह आगरा कॉलेज में पढ़े, जो कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में आता था, और आगरा कॉलेज उस वक्त यू.पी. का पहला लॉ कॉलेज था। और जब हमारे परदादा अब्दुल कादिर खान साहब यूनिवर्सिटी में शुरू हुए, तभी वह वजूद में आई। हम उम्मीद से यह कह सकते हैं कि यह उनका पहला जत्था रहा होगा, स्टूडेंट की पहली जमात उन्हीं की रही होगी जो कि यूनिवर्सिटी से पढ़कर निकले होंगे। फिर उसके बाद में वे लंदन गए पढ़ने के लिए, और 1897 में बैरिस्टर बन गए। तो यह हमारे लिए शुरुआत से इंस्पिरेशन रही। यहीं से उन्हें हम देखते-देखते लॉ की तरफ आगे बढ़े, और एक जिज्ञासा भी रही वकालत की तरफ, और वकालत ऐसी चीज़ है जो आपको रोज़मर्रा में सोसायटी से जोड़े रखती है, और अगर आप में एक जज़्बा है कुछ दे सकें सोसायटी को, मेरी नज़र में यह एक बहुत ही अच्छा टूल है सोसायटी को रिफॉर्म करने के लिए, अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए। एक बड़ा ही शालीनता वाला पेशा है। यही वजह थी कि इन दोनों चीज़ों को हमने इतनी तरज़ीह दी, और अपनी तरफ से भी यही कोशिश है कि अपने परिवार की लिगेसी को आगे बरकरार रखा जाए, और वह पहले हिंदुस्तानी बैरिस्टर थे जिन्होंने मेरठ में वकालत शुरू करी। उस वक्त अंग्रेज़ तो कई थे, मगर वे वाह़िद ऐसे हिंदुस्तानी थे जिन्होंने मेरठ में वकालत शुरू की और काफी लंबे वक्त तक वह पब्लिक प्रॉसिक्यूटर भी रहे, जिसे हम आम ज़बान में सरकारी वकील भी कहते हैं। और एक उनका बड़ा ही दिलचस्प किस्सा मुझे बताया गया और याद भी आता है कि 1909 में एक आर्टिकल पब्लिश हुआ जिसे डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने छापा, इलाहाबाद में। एक यहाँ मुंसिफ़ थे, बाँके बिहारी लाल, और वह एलिवेट हुए थे सेशन जज के लिए, और इसी वजह से मेरठ के टाउन हॉल में एक मीटिंग रखी गई थी उनके फेयरवेल में। वहाँ अब्दुल कादिर खान साहब ने अपनी स्पीच दी थी, जिसे बाद में शाया किया गया 'द हिंदुस्तान रिव्यू' में—जैसे मैंने बताया भी कि 1909 में सच्चिदानंद सिन्हा, जो कि हमारे कॉन्स्टिट्यूशनल असेंबली के मेंबर भी थे, उन्होंने पब्लिश की। तो यह सब चीज़ जब हम अपने घर-परिवार में सुना करते थे तो यह बड़ा ही इंस्पायर करता था। इसीलिए मन इन चीज़ों की तरफ आगे बढ़ा कि और इन चीज़ों को बढ़ावा देना चाहिए।
अरमान: जैसा कि आपने बताया कि शूटिंग आपने शौकिया तौर पर शुरू की थी, मगर जब भी हम किसी चीज़ को शुरू करते हैं तो फिर बाद में वह एक गंभीरता हम में आने लगती है। और यह तो साफ है ही कि यह एक वक्त था, यह खेल एक बिल्कुल ही एलीट क्लास का माना जाता था, एक पूरी तरीके से हम उसे रिज़र्व मान सकते हैं, फिर चाहे वह पोलो हो। मगर अब हम देख रहे हैं कि आम लोग भी इसके अंदर बड़ी ही शाइस्तगी से आगे आ रहे हैं। लेकिन क्या वाकई में इसकी ऑडियंस और प्लेयर उस रफ़्तार से बढ़ रहे हैं जैसे हम दूसरे खेलों में देखते आए हैं?
मुनीर खान: बिल्कुल, आपका यह बहुत ही अच्छा सवाल है, लेकिन इसकी दो वजह हमारे सामने हैं कि वह क्या वजह है कि वह अवाम और प्लेयर इन स्पोर्ट्स के साथ उस तरीके से नहीं जुड़ पाए जैसे दूसरे खेलों के साथ जुड़ पाते हैं? मिसाल के तौर पर अगर हम क्रिकेट को देखते हैं तो उसे खेलने के लिए आपके पास में क्या इक्विपमेंट चाहिए? उसके लिए हमें एक क्रिकेट बैट चाहिए, बॉल चाहिए और एक खेल का मैदान, जो कि आपको गाँव में भी और अर्बन जगह पर हर जगह आपको आसानी से मिल जाती है।
और यही वजह है कि जो हमारे पास में दूसरे जिन्हें एलीट क्लास का गेम पहले कहा जाता था, और जब अब आम अवाम भी उसमें आ रही है, जैसे शूटिंग और पोलो—इन सबको एक्सपेंसिव बनाता कौन है? लोग तो नहीं बनाते। इसे एक्सपेंसिव बनाती है वह चीज़ जिससे इसे खेला जाता है। अगर आप पोलो खेलना चाहते हैं तो वाज़ेह तौर पर आपको घोड़े की ज़रूरत पड़ेगी, और उसमें भी उस घोड़े का एक नाप होता है—वह पोनी घोड़ा कहलाता है, और उसके अलावा जो पोलो स्टिक है, उसकी जो बॉल है, और मैदान है, वह एक मक़सूस जगह पर ही आपको मिल सकती है। क्योंकि आज के दौर में एक आम इंसान के लिए घोड़ा रखना बेहद ही मुश्किल है, और बग़ैर घोड़े के पोलो खेलना पॉसिबल ही नहीं है।
वहीं अगर हम शूटिंग को देखते हैं तो उसके लिए पहली चीज़ ही जो है वह बंदूक होनी चाहिए, जो कि अपने आप में बहुत क़ीमत की है। और शूटिंग के अंदर भी हम देखें तो एक स्पेसिफ़िक टाइप ऑफ़ गन होना ज़रूरी है। क्योंकि अगर मैं मिसाल के तौर पर आपको दुनाली की बात करूँ, उसके दो ट्रिगर होते हैं, और इसकी जो नली होती है वह आस-पास में होती है। मगर गेम में जो इस्तेमाल की जाती है वह ऊपर और नीचे होती है, जिसे हम कहते हैं ओवर अंडर, और इसमें एक ही ट्रिगर होता है, और इसके अंदर न्यूटन का थर्ड लॉ लगता है: "For every action, there is an equal and opposite reaction." जैसे कि आप जब पहला ट्रिगर दबाते हैं, तभी उसका दूसरा ट्रिगर दबेगा जिससे आप दूसरी फ़ायर कर सकते हैं। अब इसकी जो बंदूक है वह एक स्पेसिफ़िक जगह से आ रही है जो कि इटली से आ रही है, जो कि अलग-अलग कंपनियाँ हैं—यह एक मिसाल के तौर पर मैंने आपको बात कही। और जो इसका कारतूस होता है वह भी बाहर से आता है, और शूटिंग के लिए जो जगह है वह भी एक स्पेसिफ़िक है। आप हरेक जगह पर इसे इस्तेमाल भी नहीं कर सकते। यही वजह है कि जो चीज़ इसमें इस्तेमाल हो रही है खेलने के लिए, वह इसे इतना एक्सपेंसिव बना देती है कि आम अवाम इससे खुद-ब-खुद दूर हो जाता है। और यह सब चीज़ बड़ी आसानी से मुहैय्या नहीं कराई जा सकती, और यही सब वजहें हैं कि अवाम इससे जुड़ती नहीं या जुड़ नहीं पाती। और ऐसी बात नहीं है कि टैलेंट नहीं है, वह जो चीज़ें हैं, जो एक्सपेंसेस हैं, वह रिस्ट्रिक्शन का काम करती हैं, और इन सब की वजह से वह एक दायरे में महदूद हो जाती है।
अरमान: बिल्कुल आपने यह जो भी बातें कहीं यह प्रैक्टिकल बिल्कुल सही है, मगर जो अकादमी है, जिस तरीके से काम किया जा सकता था, क्या उस हिसाब से भी इन पर वह तवज्जो पर काम हो रहा है?
मुनीर खान: अगर हम देखा जाए तो इस तरीके से तो कोई इसमें बड़ा बदलाव हमें देखने को नहीं मिला है, मगर हम यह कह सकते हैं कि सरकार की कुछ पॉलिसीज़ ऐसी होनी चाहिए, और हो भी रही हैं, जिससे हम उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार और अकैडमी इन सब चीज़ों को गंभीरता से लें और इन पर विचार-विमर्श करके कुछ ऐसी पॉलिसीज़ लाएँ जिससे वह लोग जिनके पास टैलेंट है, मगर वह इन सब एक्सपेंस के कारण इनमें नहीं आ पा रहे हैं, उन्हें एक बेहतर रास्ता दिखाया जाए।
क्योंकि अगर हम इसे दूसरे नज़रिए से भी देखें, सरकारी पॉलिसीज़ हों या फिर दूसरे प्रमोशन टैक्स से, तो चंद ही खेल हिंदुस्तान में हैं जिन्हें बढ़ाया जाता है, उन्हें प्रमोट किया जाता है। बाकी जो स्पोर्ट्स हैं, उन पर मुझे लगता है इतना खास ख्याल नहीं रखा जाता है जिस तरीके से उन्हें वह स्पेस मिलना चाहिए, वह प्रमोशन देना चाहिए। वह पॉलिसीज़ में हमें देखने को नहीं मिलता। हालाँकि जब से लीग बननी शुरू हुई हैं और बॉलीवुड का एक इंवॉल्वमेंट हमें देखने को मिला है स्पोर्ट्स के अंदर, एक अलग तरीके से जो प्रमोशंस हो रहे हैं, एडवर्टाइज़मेंट की जाने से भी अगर हम देखें तो उसमें कुछ हद तक हमें फ़र्क देखने को मिला है। मगर इससे पहले इन चीज़ों की बहुत ज़्यादा कमी थी। एग्जांपल के तौर पर अगर हम देखें तो कबड्डी है, उस पर पूरी तरीके से बॉलीवुड का रुख हमें देखने को मिल रहा है। एक्टर्स जिस तरीके से उसे प्रमोट कर रहे हैं, प्रीमियर लीग होने लगी है, तो यह भी वजह है कि लोगों की कन्वर्सेशन में वह चीज़ शामिल हुई हैं इस प्रमोशन के बाद में। इस तरह की जब चीज़ लोगों के बारे में हम बात करते हैं तो यह चीज़ आती है। अब अगर मैं दूसरी तरफ बात करूँ तो हैंडबॉल है, उसे लोग इतना ज़्यादा नहीं जानते। इन सब तरह की चीज़ों के बारे में जानकारी इसलिए नहीं है क्योंकि वह लेवल पब्लिक डोमेन में उसे दिया ही नहीं गया जितना कि कुछ चुनिंदा खेलों को दिया जाता है। और देखिए, सरकार भी तब तक कुछ नहीं करती जब तक कि उस स्पोर्ट्स के प्लेयर मेनफ़्रेम में नहीं आते हैं। उस खेल के खेलने वाले लगातार अपनी माँग आगे रखेंगे, आवाज़ बुलंद करके कहेंगे कि हमें इन चीज़ों की ज़रूरत है, और हमें वह मुहैय्या नहीं कराई जा रही है, तब बिल्कुल, सरकार भी मजबूरन उस पर काम करेगी। और इस तरह की चीज़ अगर हम पब्लिक डोमेन की जब बात करते हैं तो हर चीज़ घर से शुरू होती है, और हम सबने ही बचपन में एक कहावत अक्सर सुनी है: "खेलोगे कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब।" कि पहले जो स्कूल है वह घर ही होता है, और यह सब चीज़ें हमारे दिमाग में घर पर ही डाल दी जाती हैं। अगर बच्चा अपना फिजिकल स्ट्रेंथ सुधारने के लिए क्रिकेट या फ़ुटबॉल खेलता है तो कहते हैं कि क्या करोगे खेल के, घर में बैठकर पढ़ो। इन सबको हमें देखना चाहिए कि यह बहुत बड़े पैमाने पर है—समाज में भी है और सरकारी मसले भी हमें देखने को मिल रहे हैं।
अरमान: 1857 से पहले का अगर हम वक्त देखते हैं तो वह पूरा ही नवाबशाही और रजवाड़े का दौर रहा, जिसमें एक बेहतर ताकत उनके पास में थी, मगर रिवॉल्ट के बाद में कंपनी से हटकर सत्ता सीधे क्राउन के पास गई। और 1857 से लेकर अगर हम प्रिवी पर्स तक के दौर को देखते हैं, जो ख़त्म किया गया इंदिरा गांधी सरकार के अंदर, तो क्या सभी के साथ एक साथ सुलूक किया गया था? क्योंकि अगर हम किसी से कुछ ताकतें ले रहे हैं तो क्या सभी के साथ एक-सा व्यवहार था या कुछ को उसमें भी प्रिविलेज दी गई थी?
मुनीर खान: बिल्कुल आपने बात सही कही, और यह बिल्कुल साफ तौर पर है। 1857 से पहले का अगर आप सेटलमेंट देखते हैं किसी भी ज़िले का, रियासत का, वह बिल्कुल ही अलग था, मगर 1857 के बाद जो हुआ वह बिल्कुल ही अलग हो जाता है। क्योंकि कोई भी रजवाड़ा, ज़मींदार उस वक्त था जो कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थे, उनकी संपत्तियाँ, जायदादें, ताकतें, सब हथिया ली गईं, और जिनका कोई वजूद नहीं था, जो एक कोने में बैठे थे, उन्हें सारी ताकतें हाथ में दे दी थी, और वह हुक़मरान हो गए। क्योंकि अगर आप देखेंगे दस्तावेज़ को, कि अगर हम देखें तो एक-एक हिंदुस्तानी को मुख़बरी करने के अंग्रेज़ों ने उस दौर में ₹100 दिए। क्योंकि अगर हम देखें तो यह चीज़ नहीं होती, ग़द्दारी अगर नहीं होती तो अंग्रेज़ तो 1857 में ही देश छोड़ देते। क्योंकि अगर देखा जाए तो कमी तो हममें खुद में थी ना।
मिसाल के तौर पर अगर हम रामपुर को लेते हैं , यू.पी. में उस वक्त तीन ही प्रिंसली स्टेट्स थीं—अयोध्या, रामपुर और गढ़वाल। रामपुर का वजूद इतना नहीं था उस दौर में। मगर उसके बाद में रामपुर के जो नवाब हुए, जिस तरीके से उन्होंने अंग्रेज़ों की मदद की, कहीं-कहीं वह न्यूट्रल रहने की कोशिश में रहे ताकि उन्हें कुछ-न-कुछ मदद मिलती रहे, और उसके बाद से उनका वजूद बढ़ता गया। और 1857 से लेकर 1947 तक के वक्त को अगर आप देखेंगे तो यह वही लोग थे जिन्होंने अंग्रेज़ों की वफादारी में अपना सब कुछ दे दिया, और या यूँ कहूँ उनसे सब कुछ ले लिया वफ़ादारी के बदले में, तो उन्हें ही सब कुछ मिला। उन्हें जो तनख़्वाह थी वह बराबर मिलती रही। अंग्रेज़ों ने ऐसे लोगों की दो से तीन जेनरेशन तक वज़ीफ़े बाँधे, उन्हें फ़ाइनेंशियली स्ट्रांग भी किया। और जैसे ही देश आज़ाद हुआ, और जो लोग उस वक्त हुक़मरानी में थे, उनके जो सब्जेक्ट थे, वही लोग बन गए। पहले वह सीधे तौर पर हुक़्म चलाते थे, अब उन्हें एक पॉलिटिकल स्टेबिलिटी मिल गई, और वह जो सिलसिला जो पहले से चल रहा था, वह चलता रहा। क्योंकि अगर आप देखते हैं, जो 1857 में रजवाड़े और नवाबशाही और जो भी ताकत अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ रही, उसे तो बिल्कुल पूरी तरीके से ही ख़त्म कर दिया था। और ज़रूरी नहीं है कि अगर हम 1857 तक की बात कर रहे हैं तो 57 से पहले भी इस देश में कई क्रांतियाँ हो चुकी हैं, क्योंकि 1857 तो एक जो वक्त था, वह मरकज़ बना था क्रांतिकारियों का। क्योंकि अगर आप देखें तो वह इस तरीके से तरक़ीब के साथ में 1857 का रिवोल्ट तैयार हुआ था कि अगर उसमें कुछ पहले वह शुरू न होता तो किसी भी लिहाज़ से रोकना मुमकिन नहीं था। पेड़ों की छाल जो है वह छील दी जाती थी, जिससे वह एक साफ संदेश था कि अंग्रेज़ों तुम्हें भी इसी तरह से छील लिया जाएगा। क्योंकि अगर आप पेड़ की छाल छील देते हैं तो वह सूख जाता है। और 1972 के अंदर इंदिरा गांधी सरकार ने जब प्रिवी पर्स को ख़त्म किया, और वह प्रिवी पर्स किन्हें दिया जाता था? वह उन रजवाड़ों को दिया जाता था जो अंग्रेज़ों के साथ हो गए थे। जैसा कि मैंने आपको बताया कि तीन-तीन जेनरेशन की तनख़्वाह बाँधी गई थी। जिस वक्त एक आम हिंदुस्तानी भी अंग्रेज़ों के सामने खड़ा था, वह रजवाड़े ऐसे थे जिन्होंने सरकार के साथ मिलकर अपने ही लोगों पर ज़ुल्म किया। यह प्रिवी पर्स उसकी निशानी थी, और 1972 तक यानी कि आज़ादी के 30-35 साल तक वह निशान आज़ाद भारत में भी उन लोगों को वह क़ीमत दी जा रही थी जिसमें उन्होंने अंग्रेज़ों का साथ दिया। यह भी एक बड़ी सोचने की बात है कि अगर आज़ाद भारत में उन्हें एक इतनी बड़ी रक़म सरकार से मिल रही थी एक लंबे वक्त तक, तो गुलाम भारत में जब अंग्रेज़ पूरी मुकम्मल तौर पर ताक़तवर थे, तब उन्हें क्या-क्या चीज़ दी गई थी? वह क्या हद होगी एक्सप्लॉयटेशन की? आम आदमियों के साथ में क्या बर्ताव हुआ होगा? और बिल्कुल आपने बात सही भी कही कि जिस तरीके से फ़र्क किया गया, और यही वजह थी कि अगर 1857 में हिंदुस्तानी मुकम्मल तौर पर एक साथ होते यानी कि वह ताकतें जो अंग्रेज़ों के साथ हो गई, जिन्होंने क्रांतिकारियों की मुख़बरी की, तो आप देखिए कि वह क्या ही मंज़र होता—एक नए तरीके से इस देश की बुनियाद रखी गई होती। क्योंकि उस दौर में जो जज़्बा था वह बिल्कुल ही एक अलग मुक़ाम पर था, लेकिन बाद में जैसे-जैसे चीज़ें टूटती गईं, फिर हमने यह भी देखा कि मज़हब के आधार पर एक देश भी वजूद में आया, क्योंकि अगर हम देखें उस दौर में अगर आज़ादी मिलती तो वह देश भी न बनता।
अरमान: मैंने आपका एक आर्टिकल देखा जिसमें आपने मेरठ के नवाब और 1857 की क्रांति का ज़िक्र बखूबी किया है, और ऐसी चीज़ें उसमें मालूम पड़ती हैं जो कि मेनस्ट्रीम में कभी उस पर ज़िक्र करने की कोशिश भी नहीं की। क्योंकि जब हम इतिहास पढ़ते हैं तो तारीख़ में जो बातें की गईं और आज का जो इतिहास लिखा गया है, उसमें मेरठ के फ़ौजी दस्ते को तरज़ीह देती हुई बात होती है, मगर नवाब का ज़िक्र हमें इतना ख़ास देखने को मिलता नहीं है।
मुनीर खान: यह बिल्कुल ही आपने सही फ़रमाया। और अगर मैं बात करूँ, नवाब शेख़्ता बेहद ही मशहूर और मक़बूल शायर भी थे, मिर्ज़ा ग़ालिब के हम-साया थे, अंग्रेज़ी में कहा जाए तो कंटेंपरेरी थे, समकालीन थे। और यह चीज़ें मैंने बड़े-बड़े इतिहासकारों को भी बताई हैं, उसके दस्तावेज़ मेरे पास मौजूद हैं। जब मैं वह किस्सा सुनाता हूँ तो बड़े इतिहासकारों को भी उसे तस्लीम करने में परेशानी होती है, क्योंकि यह किस्सा न तो आम अवाम में आया और न ही मेनस्ट्रीम मीडिया और इतिहासकारों ने उसे आगे लाने की कभी कोशिश की, और उनके परिवार और उनके जानने वालों तक ही महदूद रह गया।
और यह किस्सा कुछ यूँ है: यह बात 1857 के उन्हीं दिनों की है। उनके वहाँ एक भीम सिंह थे जो कि ग़राओली के थे, और भीम सिंह उस वक्त बड़ी हरकतें कर रहे थे—लोगों को बेदख़ल करना और ज़्यादती करना, जो कि एक आम बातचीत हो चुकी थी। और वह आते हैं और नवाब शेख़्ता को झाँगीराबाद में बेदख़ल कर देते हैं। उसके बाद वह ख़ानपुर आते हैं और यहाँ आकर वह मदद माँगते हैं क्योंकि उनका एक रिश्ता रहा था हमारे ख़ानदान से। उस वक्त उन्होंने एक ख़त लिखा था बहादुर शाह ज़फ़र को, जो कि हमारे पास महफ़ूज़ है, जिसमें मुग़ल बादशाह से भी मदद माँगी गई थी। और क्योंकि वह उस वक्त क़रीबी भी थे, तो जवाब आया कि मदद होनी चाहिए। और उस वक्त जो हमारे जादे अमजद थे, हाजी मुनीर खान साहब, वह बारह बस्ती का एक दस्ता लेकर, पठानों का जत्था लेकर—क्योंकि यह जो ख़ानपुर रियासत थी, बारह बस्ती के जो गाँव थे, बसाए गए थे जो हमारे बुज़ुर्गों के वहाँ से फ़ौज लिया करते थे—क्योंकि ताल्लुक़दारों को यह इख्तियार हासिल था कि वह अपने पास रिज़र्व फ़ोर्सिज़ रख सकते थे। और जब वह जाते हैं तो वहाँ मालूम पड़ता है कि उस क़िले की घेराबंदी कर रखी है, और पूरी तरीके से क़िले के दरवाज़े बंद हैं, क्योंकि एक बड़ी ताक़तवर क़िलेबंदी हो रखी थी। मगर उन्होंने उनकी भी एक सुक्ष्मजी (सूझ-बूझ) थी, काफ़ी ज़्यादा उन्होंने जंग में शिरकत ली थी, तो गेट को तोड़ने के बाद में जब फ़ौजियों को अंदर दाख़िल होने का हुक़्म दिया—क्योंकि हमारे बुज़ुर्ग बताते हैं कि उस पर इतनी गोलाबारी की गई कि वह पूरा दरवाज़ा हिट हट गया। और जब कुछ पठान सीढ़ी लगाकर दूसरी तरफ़ से क़िले में दाख़िल होने की कोशिश करते हैं तो भीम सिंह ने खौलता हुआ तेल उन पर डाल दिया। मगर फ़ौज अंदर गई, और ठाकुर भीम सिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया। और ठाकुर भीम सिंह को गिरफ़्तार होने के बाद में हाथी के पीछे बाँधकर ख़ानपुर में लाया गया, और ठाकुर भीम सिंह से माफ़ी मँगवाई गई, और नवाब शेख़्ता दोबारा से उनका क़ायम क़िले में करवाया गया।
और जब भी मुक़दमा चलता है अब्दुल लतीफ़ खान साहब पर—क्योंकि अंग्रेज़ों का उस दौर में यही था कि पकड़ा और फाँसी पर लटका दिया जाता था। बुलंदशहर का एक बड़ा ही मशहूर कत्लेआम है जिसे कालेआम से जाना जाता है। वहाँ चौराहा है, सैकड़ों लाशें उस दौर में लटकाई गई थीं क्रांतिकारियों की। क्रांतिकारियों को पकड़ते हैं, पेड़ पर फंदे लगाकर गोली मार देते ताकि दहशत फैलती, और कहीं-कहीं दिनों तक उनकी डेड बॉडीज़ को वहाँ से हटाया नहीं जाता था। मगर जो उस वक्त के ताल्लुक़दार थे, और जो कुछ असर रखते थे, उन पर मुक़दमा चलाया जाता था, और जो मुनीर खान साहब के समधी भी थे और चाचा भी थे, उन पर यह मुक़दमा चला 1857 का। उन पर चार इल्ज़ामात थे, जिसमें से पहला इल्ज़ाम यह था कि अगर उस वक्त हुकूमत अंग्रेज़ों की है, तो आपने किस तरह फ़ौजी भेजकर भीम सिंह को गिरफ़्तार किया? किसके हुक़्म पर मुनीर खान गए और उन्हें गिरफ़्तार किया? और फिर से कैसे नवाब की ताबेदारी दी गई? और दूसरा इल्ज़ाम यह था कि आपने उस वक्त के मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के साथ में ख़तो-किताबत की है। और तीसरा मुक़दमा उन पर यह चला कि जो बक़ाया पैसा है वह आपने देने से इनकार किया। और चौथा इल्ज़ाम उन पर यह था कि आस-पास के जो डोमिनेंट कम्युनिटी से गूज़र (गुर्जर) समाज के जो लोग थे जो कि क्रांतिकारी थे, और उस वक्त के जो पठान बारह बस्ती के थे, उन सबको अपने यहाँ शेल्टर दिया, संरक्षण दिया—क्योंकि उस वक्त ख़ानपुर आस-पास के क्रांतिकारियों का एक मरकज़ बन गया था। इस तरह के इल्ज़ाम उन पर लगाए गए और मुक़दमा चलाया। और यह जो किस्से हैं, बहुत ही कम लोगों को मालूम हैं, और मेरी लगातार कोशिश रहती है कि मैं इसे गंभीर लोगों तक पहुँचाऊँ और इतिहासकारों को इसके बारे में जानकारी दूँ जो इसके बारे में कम जानते हैं। क्योंकि अगर हम देखें तो नवाब शेख़्ता काफ़ी मशहूर शख़्सियत रहे अपनी, फिर चाहे वह दूसरे किस्सों के बारे में या फिर उनकी जो शेरो-शायरी थी, मगर लोगों को यह भी मालूम होना चाहिए कि उन्हें किस तरीके से उनकी रियासत से बेदख़ल करने की कोशिश की गई, बल्कि कोशिश, वाकई में उन्हें बेदख़ल किया गया, और फिर दोबारा उन्हें किस तरीके से उनको वहाँ पर क़याम हुआ।
Vasudha Sahgal
वसुधा सहगल
साहित्यकार, पटकथा लेखिका और ख्यातनाम पत्रकार से शब्द संवाद हेतु अरमान नदीम की खास बातचीत ।
मुझे कई बार ऐसा लगता है लिखते वक्त मेरे कैरेक्टर्स ही मुझे बता देते हैं कि अब हमारी इतनी ही कहानी आपको बतानी चाहिए । - वसुधा
परिचय वसुधा सहगल
वसुधा सहगल लेखिका, पटकथा-लेखक और पत्रकार हैं, जिनका साहित्यिक संसार कथा-साहित्य, बाल-साहित्य, सांस्कृतिक लेखन तथा मुद्रित, डिजिटल और श्रव्य माध्यमों में कहानी कहने की कला तक विस्तृत है। उनका प्रथम कथा-संग्रह ऑलमोस्ट परफेक्ट बट मोस्टली नॉट (रूपा पब्लिकेशन्स, 2025) उनकी पूर्ववर्ती रचनाओं सुपरहीरो विल (बर्च बुक्स, 2022), द प्लानेट फॉक्सर्स (फायरफॉक्स बाइक्स, 2018) तथा चर्चित कहानी रेंट अ हसबैंड (जगरनॉट बुक्स, 2019) के पश्चात प्रकाशित हुआ। पत्रकारिता के क्षेत्र में द ट्रिब्यून, द क्विंट, डेली पोस्ट, हफ़िंगटन पोस्ट और टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने व्हिसलिंग वुड्स इंटरनेशनल के मार्गदर्शन में मौलिक वेब सीरीज़ तैयार कीं। वर्तमान में वे पटकथा-लेखन के लिए एक्ससीड एंटरटेनमेंट से संबद्ध हैं।
लेखन के अतिरिक्त वसुंधा स्पॉटिफ़ाई पर अपने सांस्कृतिक संवाद-कार्यक्रम वाइब विद वसुंधा का संचालन करती हैं, जिसमें वे विभिन्न प्रमुख हस्तियों से वार्तालाप प्रस्तुत करती हैं। साथ ही वे माइक्रॉन इंस्ट्रूमेंट्स प्राइवेट लिमिटेड की डायरेक्टर भी हैं, जहाँ वे रणनीतिक संचालन और बिज़नेस डेवलपमेंट का दायित्व निभाती हैं। इन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ नॉटिंघम से इकॉनॉमिक्स में स्नातक किया तथा पत्रकारिता और पटकथा-लेखन में विशेष प्रशिक्षण एवं वर्कशॉप्स प्राप्त कीं। द लॉरेन्स स्कूल, सानावर की छात्रा रही हैं, जहाँ हिमालय की गोद में व्यतीत उनके सात वर्ष साहित्य, फ़िल्म और यात्राओं के प्रति उनके अनुराग को गढ़ने वाले सिद्ध हुए।
अरमान :- मौजूदा वक्त में आप इंग्लिश शॉर्ट स्टोरी राइटर हैं मगर साहित्य में यह रुझान आपका किस तरह हुआ?
वसुधा :- अरमान मुझे बचपन से ही लिखने और पढ़ने का काफी शौक रहा है इसी से जुड़ा हुआ मैं आपको अपनी जिंदगी का एक छोटा सा किस्सा सुनती हूं चंडीगढ़ में मेरा जन्म हुआ था और दस साल की उम्र में ही मुझे बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया था और हर रविवार यह तय रहता था कि मम्मी और पापा में से कोई एक मुझे बुक स्टोर लेकर जाया करता था और वे मुझे वहां से किताब दिलाते थे । कई बार वह इवनिंग वॉक के लिए जब निकलते और वापस आकर मुझसे बात करते तो मैं कहा करती थी कि वह किताब तो पढ़ ली और इस बात पर उन्हें विश्वास नहीं होता था । वे कहते थे कि आपने यह किताब इतनी जल्दी कैसे पढ़ ली तो ऐसा भी होता था कि वह मुझे कहा करते थे कि यह स्टोरी सुनाओ तो इस तरीके से मेरे बचपन से ही पढ़ने और लिखने का शौक हुआ की दस साल की उम्र से ही पढ़ने की आदत सी हो गई और आज मेरी खुद की भी चार साल की बच्ची है और जब आप खुद उसे स्थिति में आते हैं तो आप महसूस करते हैं कि वह आदतें जो आप में बचपन से डाली गई थी वह कितनी जरूरी थी । मैं यह भी कहना चाहती हूं कि सभी चीजों को सिखाया नहीं जा सकता कुछ चीज जन्मजात होती है कुछ क्वालिटीज पैदाइशी होती है। और जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं अपनी पहली कहानी लिखी थी "अबाउट अ बंच ऑफ फ्रेंडली विचेस" उस वक्त हैरी पॉटर भी नहीं आई थी हैरी पॉटर मुझे याद है तब आई थी जब मैं दस साल की थी और मैंने यह कहानी लिखी थी जब मेरी उम्र सात साल थी और मुझे भी नहीं मालूम कि यह सब चीज मेरे दिमाग में किस तरह बन रही थी यह शब्द मेरे दिमाग में कहां से आ रहे थे और बोर्डिंग स्कूल में मुझे एडमिशन मिल गया क्योंकि मैंने एक बायोग्राफी लिखी थी एक स्ट्रीट डॉग की और इस तरह की चीज लिखना पढ़ना मुझे काफी पसंद जैसा कि आपको पहले भी बताया शुरुआत से ही रहा । मेरी जर्नी कि अगर मैं बात करूं तो अब मुझे लगता है कि मैने अभी तक शुरुआत भी नहीं की है। मैंने शॉर्ट स्टोरी लिखी बुक पब्लिश हुई और काफी लोगों को पसंद आई है काफी बुक ब्लॉगर्स ने रिव्यूज लिखे हैं और काफी अच्छे रिव्यूज मेरे पास में आए हैं लेकिन सच कहूं तो और ये मुझे भी नहीं पता क्यों मगर मुझे ऐसा लगता है कि मैने अब तक कुछ नहीं किया है शॉर्ट स्टोरी से पहले भी मैं बच्चों के लिए किताबें लिखी हुई है लेकिन मुझे अभी लगता है कि मैं सिर्फ अपने शुरुआती स्तर पर हूं और अब तक मुझे काफी कुछ सीखने को मिला है और मुझे लगता है कि अभी और ज्यादा सीख कर मैं अब शुरुआत कर सकती हूं।
अरमान :- आपकी शॉर्ट स्टोरी बुक कलेक्शन "ऑल मोस्ट परफेक्ट बट मोस्टली नोट" किताब के शीर्षक से ही बात साफ हो जाती है जो आपने अपनी कहानियों में दर्शाने की कोशिश की है और जब यह किताब पूरी हो गई और सबके सामने आ गई क्योंकि कोशिश कई बार रहती है कि हम हमेशा चीजों को और बेहतर बना सके किताब के प्रकाशन के बाद में क्या आपको लगा के इसमें कोई ना कोई चीज की कमी है जो इस किताब को और ज्यादा बेहतर बना सकती थी?
वसुधा :- बहुत ही अच्छा सवाल किया है आपने लेकिन इसका मेरे पास में बहुत ही सरल जवाब है "नहीं" और जब दूसरे राइटर मेरे पास में रिव्यू के हिसाब से फोन करते हैं और वह अपनी बातों में कहीं ना कहीं यह कहते हैं की कहानी में कुछ बदलाव की जरूरत थी या इस तरह के चेंज किया जा सकते थे तो यह चीज और सवाल मेरे पास में कहीं ना कहीं आते ही रहे । अगर मैं आपको बताऊं मैं स्क्रीन राइटर भी हूं मैंने अपना एक स्क्रीन प्ले एक प्रोडक्शन हाउस को आईपी राइट्स को भी दिया है। आप उस क्राफ्ट को भी देख सकते हैं जो की शॉर्ट स्टोरी से काफी अलग है जब मेने अपना स्क्रीन प्ले लिखा और उसका सेकंड ड्राफ्ट मैंने चेक किया और मैं निश्चित थी कि इसकी यही कहानी है और मैं आपको बता सकती हूं कि मेरे मन में वह चीज आई जो कि आगे चलकर सवाल बन सकते थे मगर मैंने उसे कहानी को वैसा ही रखा। क्योंकि जैसा कि मैं आपको बताया मैं काफी श्योर थी की यही कहानी है और इसकी वजह एक यह भी हो सकती है कि मैं बहुत ही इंटूटिव राइटर हूं मैं स्पिरिचुअल होकर सोचती हूं और मैं काफी दिल से लिखती हूं। और इस तरह की चीज मुझे लगता है कि आने भी चाहिए क्योंकि तभी हम और ज्यादा प्रोग्रेस कर सकते हैं और लियोनार्डो दा विंची "आर्ट इज़ नेवर फिनिश्ड, ओनली अबैंडन्ड" और यह मेरे साथ भी होता है जब भी मैं लिखती हूं और इस सफर में मुझे उसका अंत भी समझ आ जाता है की अब इसे अबैंडन्ड करने का समय आ गया है इसकी जर्नी मेरे साथ यही तक थी यही तक है और कहीं ना कहीं आप भी जानते हैं कि शॉर्ट स्टोरी की जब बात होती है मुझे यह लगता है की शॉर्ट स्टोरी को वहां खत्म करना चाहिए जहां आपकी रीडर बोले की अब इसके बाद क्या? आपकी लेखनी उन्हें बहुत ज्यादा पसंद आएगी वह दिल को छूएगी मगर कैरेक्टर उनके दिमाग में रुकने चाहिए वह रात को सोने से पहले सोच की और क्या हो सकता था वह कहानी उन्हें सोने पर मजबूर करें । वह किरदार सिर्फ किताब बंद कर देने से या फिर कहानी पूरी कर देने से वही खत्म ना हो जाए वह उनके दिमाग में ठहर जाए इस तरह से कहानी को मैं पूरी करने की कोशिश करती हूं और कहीं ना कहीं एक काल्पनिक गतिविधियां वह खुद से करने लगे वह मन में आपस में सवाल करने वालों की वह खाना क्या कहते होंगे या इनकी मदर के साथ उनके कैसे संबंध हैं वह यहां तक सोचें कि वह स्कूल में कैसे थे। मेरी नजर में यह एक सफल शॉर्ट स्टोरी हो सकती है । फिर कोई भी लेखनी जो पाठकों को आपकी रचना से बांधे रखें उन्हें सोचने पर चिंतन करने पर मजबूर करें। और इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है की स्टोरी ओपन एंडेड होनी चाहिए । जैसा कि आपको बताया मेरे लिए राइटिंग भी स्पिरिचुअल है और मैं यह आपको बड़ी ही ईमानदारी के साथ में कह सकती हूं कि मुझे कई बार ऐसा लगता है लिखते वक्त की मेरे कैरेक्टर्स ही मुझे बता देते हैं कि अब हमारी इतनी ही कहानी आपको बतानी चाहिए। मगर आपका यह सवाल बड़ा ही दिलचस्प है क्योंकि मैंने एक शॉर्ट स्टोरी लिखी थी जगरनॉट के लिए उनके फर्स्ट कलेक्शन ऑफ शॉर्ट स्टोरी में ही आया था और मैं वहां उनके लिए एक शॉर्ट स्टोरी लिखी थी जो कि मेरे हिसाब से काफी दिलचस्प और कुछ हद तक कह सकते हैं की फनी भी थी "रेंटल हस्बैंड" उसकी कहानी कुछ इस तरह थी कि एक लड़की है जो कि अपने उम्र के पड़ाव 30s में है और उनकी बुआ आ रही है और वह लड़की एक बहुत अच्छी जॉब कर रही है दिल्ली के अंदर मगर सब कुछ होने के बाद में भी उनकी जो बुआ है वह चाहती है कि वह सेटल हो जाए वो एक एडवरटाइजमेंट कंपनी के अंदर काम करती है । उसे कंपनी में एक अप की ब्रांडिंग हो रही है और उसे अप का नाम है रेंटल हस्बैंड जिसमें आप एक फेक हस्बैंड बना सकते हैं उसे रेंट पर ले सकते हैं और जब मैं इसे लिख रही थी तो यह मुझे काफी ज्यादा खुद को भी दिलचस्प लगा और मैं इसके ऊपर एक कैरेक्टर्स के साथ में ही पूरी एक नॉवेल लिखी है।
अरमान :- आपकी कोशिश क्यों रहती है कि आपका रीडर ऑथर तक ना आकर सिर्फ कैरेक्टर्स तक ही बात करें वह सिर्फ उनकी बातें करें वह ऑथर की सोच तक ना जा पाए वह सिर्फ कैरेक्टर्स की ही बात करें क्या बिल्कुल ऐसा ही है? सीधे शब्दों में अगर कहें क्या आपकी नजर में लेखनी में ऑथर की आवाज़ ज्यादा झलकती है या फिर कैरेक्टर्स की।
वसुधा :- बिल्कुल कुछ ऐसा ही मेरा मानना है और मुझे लगता है कि मैं एक ऐसी राइटर हूं अगर कोई यह भूल भी जाए कि वो मैंने लिखी है या किसने लिखा है मगर वह कहानी उन्हें बहुत अच्छी लगी और वह अंदाजा लगाने लगे और जब वह सोचने लगे और वह दूसरी कहानी पढ़े मेरी तो उन्हें वह सब कुछ अलग लगे तो कहीं ना कहीं यह एक कंप्लीमेंट रहता है मेरे लिए और मुझे ऐसा लगता है कि आपकी शॉर्ट स्टोरी एंटरटेनमेंट की नजरिया से भी और नॉलेज के हिसाब से भी एक साथ अगर आप उसे पेश कर सके तो वह काफी बेहतरीन ढंग से रीडर को अट्रैक्ट करती है । वह एंटरटेन करें कि लोगों की लाइफ में काफी परेशानियां होती है और जब वह कुछ ऐसा पढ़ते हैं और वह आपकी राइटिंग पर अपना टाइम इन्वेस्ट कर रहे हैं तो उनको थोड़ा इंटरटेनमेंट मिलना चाहिए। लोगों को लगना चाहिए कि अगर हमने कोई वेब सीरीज नहीं देखी या टीवी पर प्रोग्राम नहीं देखा या फिर वह यह कहने लगे कि हम अपने दोस्तों के साथ कॉफी पर जा सकते थे मगर यह सब ना करके मैंने किताब उठाना चुना । उसमें कहानी पढ़नी शुरू की और यह मेरे समय को बेहतर बना गया। मेरे कैरेक्टर्स के पास खुद उनकी आइडेंटिटी है और कहीं ना कहीं एक तरीके से राइटर का एक ईगो भी हो सकता है और लिखो और बोलूं कि मेरी वॉइस ज्यादा इसमें आनी चाहिए एक इंग्लिश लिटरेचर में स्लैंग होती है "किल योर डार्लिंग्स" और यह चीज में कहीं ना कहीं अपने दिमाग में और मैं इस चीज में विश्वास करती हूं कि जो आपका रीडर है वह आपका मेहमान है । जब कोई आपके घर में आता है तो आप मेहमान नवाजी कैसे करते हो उनके सामने अलग-अलग तरह के पकवान व्यंजन , सर्वश्रेष्ठ मिठाइयां रखते हैं एक बेहतर संवाद होगा अपने घर को अच्छी तरीके से साफ करोगे। और मैं भी यही मानती हूं कि शॉर्ट स्टोरी इससे बहुत मिलती है और कहीं ना कहीं राइटर के दिमाग में चीज आ जाती है कि अगर मैं पब्लिश हो रहा हूं तो मुझे सब पता है और इस तरह की चीज मैं अवॉइड करना पसंद करती हूं क्योंकि मैं आत्मा आलोचना में विश्वास रखती हूं सेल्फ क्रिटिसिज्म लिटरेचर में बहुत ज्यादा जरूरी है और जैसे बात कही की राइटर की ईगो बीच में आ जाती है लेकिन मैं अपने कैरेक्टर्स का ईगो खुद के ईगो से ऊपर रखती हूं।
अरमान :- आप फ्रीलांसर जर्नलिज्म के तौर पर भी अपना काम कर चुकी है वह अनुभव कैसा था?
वसुधा :- जी बिल्कुल आपने सही कहा मैंने फ्रीलांसर जर्नलिज्म में अपना करियर मूवी रिव्यूज के साथ शुरू किया था एक न्यूजपेपर पब्लिकेशन है डेली पोस्ट चंडीगढ़ में उन्होंने मुझे यह अपॉर्चुनिटी थी मैंने मूवी रिव्यू बुक रिव्यू इस तरह का मैं काम किया मैंने त्ट्रिब्यून के लिए काम किया और इसके साथ-साथ मेरी कोशिश रही और मेने कॉर्पोरेट जॉब्स भी किया मैं शुरुआत से अपने फैमिली बिजनेस में भी इंवॉल्व रही और यह सब काम करते-करते मेरा जो वर्क लोड था 9- 5 का वह जब खत्म होता था तब मैं उसके बाद स्टोरी लिखा करती थी क्योंकि यह सब चीज जब एक साथ होती है तो भी एक अलग तरीके का मोटिवेशन और एक्सपीरियंस मिलता है क्योंकि आप अपनी पर्सनल लाइफ को भी इसमें इंवॉल्व कर रहे हैं एक टर्म से आप इसे समझ सकते हैं कि "आई एम नॉट ए राइटर आई राइट" वह मेरी पूरी पर्सनालिटी नहीं हो सकती और इसके साथ-साथ ही मैं अगर कुछ और भी करती हूं और प्रोफेशन में जाती हूं वह मेरे लिए वह बड़ा ही इंस्पायर करेगा कि जब आप खुद से कम कर रहे हैं और काफी लोगों से मिलते भी हैं रियल लाइफ प्रॉब्लम्स से आप वाकिफ हैं । प्रोडक्ट्स को लेकर कंज्यूमर्स को लेकर मुझे ज्यादा इंस्पायर करती है मेरी राइटिंग को लेकर।
अरमान :- आपने खुद भी साहित्यकारो का साक्षात्कार किया है अनुभव कैसा था क्योंकि जब भी क्योंकि जब कोई व्यक्ति इस परिवेश से जुदा हो जिससे वह संवाद कर रहा है वहां आपको खुद भी कई चीजों के बारे में पता होता है।
वसुधा :- बिल्कुल आपने सही कहा मुझे दिल्ली लिटरेचर फेस्टिवल से इस चीज का न्योता आया था और वहां गेस्ट स्पीकर के तौर पर मुझे बुलाया गया था और वहां बड़े ही दिग्गज लेखक और अलग-अलग विधाओं से जुड़े हुए लोग अलग-अलग फील्ड से आते हुए मास्टरमाइंड से आप वहां मिलते हैं कन्वर्सेशन करते हैं पॉलीटिशियंस, एक्टर्स । जब मुझे बुलाया गया मैं काफी खुश थी क्योंकि आप ही जानते हैं दिल्ली लिटरेचर फेस्टिवल रिस्पेक्ट है । शानदार काम वह एक लंबे वक्त से करते हुए आ रहे हैं और मैंने तुषार जी का इंटरव्यू किया था और बिल्कुल इंटरव्यू देने में और करने में एक बड़ा फर्क होता है और मैंने दोनों ही किए हैं और वहां मुझे यह भी कहा गया था कि अपने क्राफ्ट के बारे में आप बताइए उस पर मैंने अपनी स्पीच दी थी जिसमें बताया था कि जर्नलिज्म और शॉर्ट स्टोरी में किस तरह के फर्क हैं एक बड़ा ही इंटरेस्टिंग कन्वरसेशन हुआ और जहां मैं जर्नलिज्म के ऊपर भी अपनी बात रखी जर्नलिज्म हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है । बड़ी जिम्मेदारी के साथ में हमें इसके साथ आगे बढ़ना होता है और वही फिक्शन शॉर्ट स्टोरी है वह एक नई दुनिया को बनता है और यह बहुत जरूरी है वह एक इवोल्यूशन का रास्ता है क्योंकि इवोल्यूशन ही वो रास्ता हुआ जहां से सिविलाइजेशन आगे बढ़ी दोनों ही काफी अलग चीज हैं और मुझे काफी अपना इनसाइड देने का मौका मिला और बिल्कुल ही यह एक शानदार अनुभव था मेरे लिए वहां जाना बात करना अपने विचार रखना और लोगों के विचार सुनना और जर्नलिज्म में अपने कैरेक्टर्स में भी इस्तेमाल करती हूं और वहां इन सब चीजों को मैंने बड़ी गहराई से रखा। और फिर जब मैं इंटरव्यू कर रही थी तो वह जब लिखते हैं वह एक जापानी फॉर्म का इस्तेमाल करते हैं अपनी लेखनी में जो कि मैं कभी पहले नहीं सुना था वह भी एक मेरे लिए नया अनुभव था क्योंकि मैं किसी भी तरह के फॉर्म को इस्तेमाल नहीं करती हूं अपनी शायरी के अंदर लेकिन वह काफी दिलचस्प इंटरव्यू था उनके साथ।
Ayush Krishna Tripathi
आयुष कृष्ण त्रिपाठी
भारत निर्वाचन आयोग और टाइम्स ऑफ इंडिया में कार्य कर चुके,सीएनएन के साथ फेलोशिप कर रहे आयुष कृष्ण त्रिपाठी जो प्रवासन एवं विस्थापन विषयों पर शोध , रिपोर्टिंग में महारत रखते हैं के साथ अरमान नदीम की खास बातचीत ।
अगर आपने क़ायदे से पत्रकारिता पढ़ी है, तो वहाँ साफ़-साफ़ कहा गया है कि आपको सवाल करना है - आयुष
परिचय आयुष कृष्ण त्रिपाठी
आयुष कृष्ण त्रिपाठी वर्तमान में सीएनएन के साथ फ़ेलोशिप कर रहे हैं और अफ्रीका पे अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन संगठन, संयुक्त राष्ट्र और डायस्पोरा अफ्रीका मीडिया हाउस के साथ प्रवासन एवं विस्थापन विषयों पर शोध और रिपोर्टिंग में सक्रिय हैं। इससे पूर्व वे भारत निर्वाचन आयोग और टाइम्स ऑफ़ इंडिया में योगदान दे चुके हैं।
पत्रकारिता के साथ-साथ फोटोग्राफर भी हैं, इन्हें यूनेस्को सम्मान, ऑस्ट्रेलिया का राष्ट्रपति पुरस्कार, कैनन होप ऑफ़ फ़्यूचर पुरस्कार, फ़ोटोग्राफ़ी सोसाइटी (यूनाइटेड किंगडम) पुरस्कार तथा उत्तर प्रदेश वन्यजीव विभाग का स्वर्ण पदक सहित और अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए हैं। उनके कैमरे ने अमेरिका, रूस, इटली, ऑस्ट्रेलिया, फ़्रांस, इंग्लैंड सहित पंद्रह से अधिक देशों की कहानियाँ दर्ज की हैं और उनके कार्य को विश्व के अनेक देशों में प्रदर्शित तथा सराहा गया है।
इनकी तस्वीरें फ़ोटोग्राफ़ी सोसाइटी ऑफ़ वेल्स,मैनचेस्टर (यूनाइटेड किंगडम), इज़रायल की स्ट्रीट फ़ोटोग्राफ़ी की प्रतिष्ठित फ़ोटोग्राफ़ी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी हैं। आकाशवाणी, एफ.एम रेडियो तथा विश्वविद्यालयों में अपने अनुभव साझा कर चुके हैं। कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फोटोग्राफ़ी प्रतियोगिताओं में निर्णायक के रूप में भी आमंत्रित किए गए हैं।
अरमान: आपकी भूमिका कई जगहों पर नज़र आती है, पत्रकार के रूप में, एक फ़ोटोग्राफ़र और लगातार मज़लूमों की आवाज़ बुलंद करने वाले शख्स के रूप में, लेकिन आपकी शुरुआत किस तरह हुई?
आयुष: मैं हमेशा इस पहलू के दूसरे तरफ बैठता हूँ, सवाल करने के मोड में। लेकिन आज बहुत अच्छा लग रहा है कि मुझे ख़ुद सवालों के जवाब भी देने हैं। अगर मैं अपने शुरुआती दिनों की बात करूँ, एक पत्रकार के रूप में, चित्रकार के रूप में और फ़ोटोग्राफ़र के रूप में जो कुछ भी हूं, मेरे पिताजी और मेरी माता जी को श्रेय हैं, उन्होंने जिस तरह से चीज़ें बताईं, मेरा पहला कदम वहीं से शुरू हुआ। और पढ़ने का शुरुआत से ही शौक़ था। हमारे घर एक पत्रिका आया करती थी और उसमें जब भी मैं अलग-अलग किरदारों को पढ़ता, तो मेरे मन में ख़्याल आता कि इस क़दर कैसे सोच सकते हैं? क्योंकि जब कोई बच्चा किताब पढ़ता है, तो उसके लिए एक सीधी, स्ट्रेट लाइन होती है कि A फॉर एप्पल, B फॉर बॉल और मुझे ऐसा लगता था कि ये A फॉर एरोप्लेन कैसे लिख देते हैं ? कहने का मतलब यह है कि उनके सीखने का जो नज़रिया है और दुनिया को देखने का जो नज़रिया है, वह कितना अलग है। और जब मैं देखा करता था कि अख़बार में जो फ़ोटो आ रही हैं, वहाँ से मेरा मन किया कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे पहचान ख़ुद की मिल पाए क्योंकि जब आप गाँव में रहते हैं, तो वहाँ आपकी पहचान आपके परिवार से की जाती है और मेरे मन में था कि कोई मुझे मेरे नाम से जाने। और एक ग़म की अनुभूति भी रहती थी कि परिवार के नाम से जाना जाता है हमें। लेकिन उसके बाद में भी दिल में कहीं न कहीं था कि अपनी ख़ुद की एक पहचान हो।
और एक बार इसी चाहत में फ़ोटोग्राफ़ी शुरू की और अपने ही गाँव के एक रिक्शा चालक का फ़ोटो खींचा। अगर उस फ़ोटो की आपको रूपरेखा बताऊँ, तो वह शाम को रिक्शा लेकर घर लौट रहे थे और सूरज ढल रहा था और हल्की बारिश हो रही थी। और उस वक़्त मेरे पास में कोई महंगा कैमरा नहीं था, एक सामान्य सा फ़ोन लिया और उनकी तस्वीर खींची और यह तकरीबन 2014 की बात है। और उस फ़ोटो को मैंने अपने फ़ेसबुक पर पोस्ट किया। और वहाँ से कुछ लोगों ने उसे एक अख़बार के ग्रुप में सेंड कर दिया। अख़बार के जो संपादक थे, उन्हें वह फ़ोटो काफ़ी पसंद आई और उन्होंने अगले दिन अख़बार में फ़ोटो छाप दी। तो वहाँ से गाँव में आपस में चर्चा भी होने लगी कि यह वही बाबू है जिनकी खींची हुई फ़ोटो अख़बार में आई थी। एक अवसर आया कि जब यूनेस्को से 'ऑनरबल मेंशन' मिला फ़ोटोग्राफ़ी में और मेरे गाँव की फ़ोटो पर मिला मुझे। मैं तो चाहता हूँ कि आप कभी मेरे गाँव में आएँ, तो मैं आपको दिखाऊँगा, वह फ़ोटो लगभग गाँव के घरों में लगी हुई है। और उसके साथ में यूनेस्को का सर्टिफ़िकेट था, लोगों ने उसे भी साथ में अपने घर में लगाया है कि यह हमारे गाँव की खींची हुई फ़ोटो है और हमारे ही गाँव के एक लड़के ने इसे खींचा है।
अरमान: आपने सीएनएन, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स ऐसे तमाम अख़बारों के लिए काम किया, जिसमें संपादक की भूमिका हम सब जानते हैं क्योंकि मौजूदा वक़्त में हम लगातार संपादकों का दबाव महसूस कर रहे हैं पत्रकारों पर। आपने किस तरह का दबाव अपने अब तक के पत्रकारिता के सफ़र में देखा है?
आयुष: जी बिलकुल आपने सही कहा और यह चीज़ मैंने ख़ुद भी महसूस की है और इसी के बाद में मैंने क़सम खा ली थी कि पत्रकारिता में मैं कभी भी प्रेस रिलीज़ की तरह काम नहीं करूँगा और इसी वजह से मैंने एक बहुत बड़ी संस्था को छोड़ दिया था । क्योंकि आप भी जानते हैं कि जो संपादक होते हैं और जो ख़ासकर क्षेत्रीय संपादक होते हैं, उन पर बहुत तरह का दबाव होता है। कुछ ख़बरें दबाने का प्रेशर होता है, तो कुछ ख़बरें करने का दबाव होता है और कुछ ऐसी ख़बरों को हटाने का प्रेशर होता है कि जो अब एकदम छपने के मुहाने पर खड़ी हैं । क्योंकि अख़बारों में कहीं न कहीं अब भी वह सिलसिला है। 1990 में था, वह अब भी है। 4:00 बजे से लेकर 9:00 बजे तक जो प्रेशर रहता है, वही प्रेशर आज भी है और आगे भी ऐसा ही रहेगा, जब तक अख़बार एग्ज़िस्ट करता है। और इसी तरह का संपादक पर भी दबाव रहेगा।
मैं आपको बताना चाहूँगा, एक सरकार जो मौजूदा वक़्त में नहीं है, उस वक़्त में इंटर्न था। मेरे पास एक कॉल आया कि आपने एक स्टोरी कवरेज की है जो गवर्नमेंट के ख़िलाफ़ है, उसे आप वापस ले लीजिए वरना आपको अपना जो काम है वह एडिटर के साथ में देखना पड़ेगा। यह बात 2020 की है। मैं अपनी बात लेकर संपादक के पास पहुँचा। वह काफ़ी अच्छे थे, मगर उन्होंने कहा कि इस तरह से चीज़ नहीं हो सकती है, जबकि वह इतना ज़रूरी केस था अगर वह नहीं छपता तो मैं यह कह सकता हूँ कि वह हिंदी और अंग्रेज़ी में एकमात्र ऐसा अख़बार हुआ जिसने इसकी कुछ कवरेज की। मैं उस अख़बार का नाम भी बता देता हूँ, "लोकमत"। उसे कहीं पर भी जगह नहीं दी गई बाक़ी अख़बारों में। और लोगों में एक कहानी बन गई, इतने बड़े अख़बार हैं और एक कवरेज बेहतरीन ढंग से नहीं कर पा रहे हैं। तो यह प्रेशर संपादकों पर है। यह ऐसा दबाव है कि फिर चाहे वह सरकार की तरफ़ से हो या दीगर मसले हों कि आपको वही छापना है जो हम प्रेस रिलीज़ बना कर आपको दे दें।
अब हो क्या रहा है? कि आपके जो मंत्री हों, चाहे केंद्रीय या राज्यों के, उनकी तरफ़ से एक प्रेस रिलीज़ आता है और वह अख़बारों में उसी के दायरे में काम होता है। और अगर उस हिसाब से काम नहीं होता है, तो उसे सरकारी इश्तिहार नहीं मिलते या फिर स्पेशल कवरेज की बात आती है, उन्हें नोटिफ़िकेशन बंद हो जाता है। और इन्हीं स्थिति में अगर आपके अंदर जो सवाल करने का जज़्बा है, वह ख़त्म हो जाता है, तो आपकी नसों में जो बह रहा है, वह ख़ून नहीं है, पानी हो गया है क्योंकि अगर आपने क़ायदे से पत्रकारिता पढ़ी है, तो वहाँ साफ़-साफ़ कहा गया है कि आपको सवाल करना है। और संपादक अक्सर किसी राज्यसभा सीट के लिए या और किसी तरह से ऊपर जाने के लिए अपने काम में लगे रहते हैं। अपना रिटायरमेंट सिक्योर करने के लिए मेहनत कर रहे हैं और यह चीज़ हर जगह हो चुकी है। फिर चाहे आप कोई फील्ड देख लीजिए कि अब तो वह वक़्त आ चुका है कि लोगों को कुछ दिख जाता है, मगर यह तो चीज़ लंबे वक़्त से हो रही है। एक दबाव है और यहाँ देखना और समझना उन्हें है जो आज पत्रकारिता पढ़ रहे हैं। उनके संपादक पहले कभी हमारी ही जगह हुआ करते थे, तो वह ग्राउंड लेवल से ऊपर तक के हर पहलू को समझते हैं कि किसी ख़बर को रोकने से और किसी के छपने से उन्हें लाखों के इश्तिहार मिलेंगे और किससे उनका नुक़सान होगा।
अरमान: आपने कहा कि सवाल करना ज़रूरी है, लेकिन आज भी मुझे लगता है कि निष्पक्षता हमें कहीं पर नज़र नहीं आती। हम कह सकते हैं कि मेनस्ट्रीम मीडिया आज के वक़्त में सरकार के साथ में है और वह एक खुला आरोप है कि वह सरकार की तरफ़दारी करती है और विपक्ष को पीछे तक धकेलने का काम कर रही है, लेकिन विपक्ष है, उनके पास में भी आज इंडिपेंडेंट मीडिया का साथ एक बेहतरीन ढंग से हमें देखने को मिल रहा है। मेनस्ट्रीम पूरी तरीक़े से सरकार को समर्थन दे रही है और यहाँ पर भी कहीं न कहीं निष्पक्षता पीछे छूट जाती है, फिर दोनों ही तरफ़ देखा जाए तो।
आयुष: आपने बहुत ही सटीक और अच्छा सवाल किया है कि आज के वक़्त में यह समझना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है, किस तरह दोनों ही पक्ष में, फिर चाहे वह ऑपोज़ीशन हो या फिर रूलिंग पार्टी हो, मीडिया को किस तरीक़े से अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं। इन दोनों के बीच में पत्रकारिता है कहाँ? यह आपने बहुत ही अच्छी बात कही है, किस तरह सच्चाई को रखना है। मुझे लगता है कि जब-जब मीडिया को उठने का समय आया है, तब-तब लाठी लेकर सत्ता खींचती है उसे अपनी तरफ़।
वी.पी. सिंह की सरकार थी। उन्होंने कुछ नेताओं को बुलाया, उन्होंने कहा कि हम सरकार बनाने जा रहे हैं और कहा कि यह बात किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। अगर इन बातों को मीडिया भाँप लेती है, क्या उसी समय वी.पी. सिंह के दौर में उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड ऐसी जगह पर बाढ़ आई थी। लगातार लोगों के घर बह रहे थे, लगातार लोग मर रहे थे। अपने सामान, जानवर, जिसे जितना बचाने की कोशिश कर रहे थे, इस तूफ़ानी ताक़त के साथ उन्हें नुक़सान पहुँच रहा था। उस दौरान आप एक भी रिपोर्ट नहीं पाते हैं। एक भी ऐसी चीज़ जो लोगों से जुड़ी हुई हो, आप नहीं पाएँगे और मीडिया को उस वक़्त ऐसा लग रहा था कि लोगों को यह जानना ज़्यादा ज़रूरी है कि सरकार किस तरह से रहेगी। बेशक अगर हम कवरेज के हिसाब से देखें, जो कि पॉलिटिक्स को कवरेज करते हैं, यह उनके लिए सबसे बड़ी ख़बर रहेगी लेकिन जो पत्रकारिता है, उसका आना, उसका बने रहना और उसका होना वहाँ, वही बात सबसे प्रथम होती है कि लोगों की आवाज़ किस तरह उठाई जाए और उनकी बात कैसे की जाए। दो तरह के सूरज उगते हैं। क्या आप हमारे साथ सरकार बना लीजिए, कुछ मंत्री आ जाएँ और सरकार बन जाए और वहीं मंत्री जी जगह से चुन कर आते हैं, वहाँ पर जो सूरज उगता है, वह लोग रोज़ उस सूरज का इंतज़ार कर रहे हैं कि कब वह सूरज इतना तेज़ उगेगा कि वह सारे पानी को सुखा लेगा और हम वापस से अपना घर लगा पाएँगे। यह चीज़ भाँपने का, समझने का और दिखाने की ज़िम्मेदारी पत्रकार की है, पत्रकारिता की है। यह ज़िम्मेदारी सरकार की है नहीं। यह चीज़ तो सरकार बचना चाहेगी कि उनको तो यह कहना है कि हमारी स्टेट पॉलिसीज़ फ़ेल नहीं हो रही हैं, तो बेसिक फ़ेसिलिटीज़ सबको प्रोवाइड कर रहे हैं। बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में सभी को सुविधा के साथ मदद कर रहे हैं, पूरे प्रशासन के साथ। वहाँ पर पत्रकार को होना था।अब इस विडंबना में फिर चाहे वह पक्ष के लोग हों या फिर विपक्ष के लोग हों, पत्रकारों को उन्होंने अपने हिसाब से इस्तेमाल किया है । जिससे अगर सबसे ज़्यादा प्रभाव किसी को पड़ा है, तो वह आम नागरिक को पड़ा है। और अगर ढंग से पत्रकार अपना काम कर लें, जो कि मूल रूप से उन्होंने पढ़ा है, सिर्फ़ वही वह काम करने लग जाएँ, सरकार के लिए आधे से ज़्यादा काम आसान हो जाएगा। यह समझना कि कहाँ-कहाँ ज़रूरत है कि जहाँ हम ठीक काम कर पाएँ। एक बड़ी ही ईमानदारी के साथ में जिसे हम अपने काम को अंजाम देने की बात करते हैं, कि उनकी आँख के आगे भी एक पर्दा लगा है, एक चश्मा लगा है जो अधिकारी और ब्यूरोक्रेट्स लगा के रखते हैं और वह लोग उतना ही देख पाते हैं, जितना वह नंबर बढ़ाते हैं, जितना वह दिखाना चाहते हैं। उस चश्मे को हटाने का काम पत्रकार का है। पत्रकार और पत्रकारिता दोनों ही आज उस आग में जल रहे हैं जो ख़ुद उन्हीं को जला रही है। दूसरों तक तो वह आग पहुँचा ही नहीं पा रहे हैं।
अरमान: जैसा कि हमने बात की कि आप ग्राउंड रिपोर्ट करने वाले एक पत्रकार हैं और साथ ही आपने इलेक्शन कमीशन के साथ भी बहुत गहराई से काम किया है और आज कई सवाल आम जनता के मन में घूम रहे हैं इलेक्शन कमीशन को लेकर। पिछले कुछ सालों से सीधे आरोप ईवीएम और इलेक्शन कमीशन के अधिकारियों पर लग रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम पर आपकी राय?
आयुष: आपको बहुत ही ईमानदारी से कह सकता हूँ कि जब मैं अपना काम शुरू किया और मेरे भी मन में बहुत से सवाल थे जो कि एक आम नागरिक के मन में होते हैं। जिस तरह के सवाल या निशान कमीशन के ऊपर उठाए गए, वह हर एक व्यक्ति के मन में कहीं न कहीं जगह ले रहे हैं। और मैंने इन सवालों के जवाब ढूँढने की भी कोशिश की और एक कहानी अक्सर सुनने को मिलती है जब लोग अपनी शिकायत में रहते हैं कि हमने वोट किसी और पार्टी को दिया था और पहुँच कहीं और रहा है और यह मैं चीज़ कह सकता हूँ कि इस तरह के जितने भी फ़ॉल्ट और ग़लतियाँ या फिर हम जिसे कह सकते हैं जानकार किए हुए कृत्य, यह ग्राउंड लेवल के अधिकारियों की ज़िम्मेदारी पर निर्भर करते हैं। हर इलाक़े के ऊपर अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है और यह तो बात सच है कि जब वह वोटिंग के बाद में उसे सील पैक कर दिया जाता है, तो उसके बाद में उसकी छेड़छाड़ करना संभव नहीं है। लेकिन हम साथ में यह भी कह सकते हैं कि यह एक बहुत लंबा प्रोसेस है जिस तरह से वोट करने का रहता है, जिसे सील करने का रहता है और उसे सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी होती है, उसमें अगर कहीं न कहीं चूक आती है, तो इसकी ज़िम्मेदारी किसी एक व्यक्ति के ऊपर नहीं आ सकती और ग्राउंड लेवल पर अपॉइंट किए गए अधिकारी सबसे बड़े घेरे के अंदर यही लोग आते हैं। और न सिर्फ़ मैं यह कह सकता हूँ कि मैं इलेक्शन कमीशन के साथ में काम किया है, बल्कि एक पत्रकार के रूप में भी जब मैं इस पर रिपोर्टिंग की और लोगों से जब मैं बातचीत करता था, तब उनकी शिकायत भी सीधे तौर पर इलेक्शन कमीशन से न होकर ग्राउंड पर नियुक्त अधिकारियों से हुआ करती थी। और अगर हम ईवीएम की बात करते हैं, जिस देश ने इसे शुरू किया, इस व्यवस्था को आकार दिया, वही देश इससे पीछे हट चुका है। और हम इसे इस्तेमाल इसलिए करते हैं क्योंकि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं और इतने बड़े स्तर पर रिज़ल्ट देना शायद संभव नहीं होता दूसरे किसी तरीक़ों से क्योंकि आप ख़ुद भी देख सकते हैं कि पहले कहीं-कहीं दिन लग जाया करते थे। एकाउंटिंग भी एक बार की नहीं, कई बार की हुआ करती थी, रीकाउंटिंग हुआ करती थी। और इस तरह के उपकरणों से और भी कहीं फ़ायदे हमें देखने को मिलते हैं। आप यह पता लगा सकते हैं कि कितने प्रतिशत की वोटिंग हुई है और कम वक़्त में इन चीज़ों के बारे में हम पता लगा सकते हैं क्योंकि हर एक चीज़ एक्सेल शीट पर आ जाती है।
अरमान: मेनस्ट्रीम मीडिया पर मैं एक सवाल करना चाहूँगा क्योंकि हमने पहले भी ज़िक्र किया के इस तरीक़े का विभाजन हमें देखने को मिल रहा है क्योंकि इसलिए लिहाज़ से हम मीडिया का डाउनफ़ॉल इसे कह सकते हैं। क्या आपको लगता है कि आने वाले वक़्त में फिर से अपनी पहचान ला सकता है और मीडिया में किसी तरह का कोई गुट न हो? क्या आपको यह चीज़ संभावित होती नज़र आती है? जो एक पहचान हिंदी मीडिया की एक वक़्त में थी, क्या वह फिर से बहाल हो सकती है?
आयुष: हम जो इस धरती पर रहते हैं, हर किसी के लिए अपने-अपने वक़्त में सूर्यास्त होता है और जब आप अपना ऑर्बिट छोड़ते हैं, स्पेस का एटमॉस्फ़ेयर छोड़ते हैं और पूरी तरीक़े से जब स्पेस में चले जाते हैं, तो वहाँ आप देखते हैं कि कभी भी सूर्य अस्त नहीं होता है। उनके लिए सूरज हमेशा बना रहता है। फिर चाहे वह चाँद का चक्कर लगे या फिर मार्स का चक्कर लगाए, जिसे चाहे उसका चक्कर लगाए, उनके लिए सूरज हमेशा उगेगा, उनके लिए वह कभी ढल नहीं सकता। पत्रकारिता भी एक ऐसी ही चीज़ है क्योंकि मौजूदा वक़्त में कहें या फिर एक लंबे वक़्त से पत्रकारिता सरकारों के दबाव में है। मैं बड़े खुले शब्दों में कह सकता हूँ कि वह अपनी रीढ़ की हड्डी को तोड़ चुकी है और गिर चुकी है पूरी तरीक़े से। और उनके लिए अब ऐसा हो चुका है कि जब राजा कुछ कहेंगे, तो प्रजा मानेगी। हमारे गाँव में अक्सर एक बात कही जाती है, "राजा ने कहा रात है, मंत्री ने कहा रात है, प्रजा ने कहा रात है, सुबह-सुबह की बात है।"
यह पत्रकारिता भी ऐसी हो गई है। उनकी रीढ़ की हड्डी टूट चुकी है। वह इतना नीचे गिर चुके हैं कि जब कहा जाता है कि सूरज उग रहा है, तो वह मान लेते हैं और जब कहा जाता है कि ढल चुका है, तो वह यह भी मान लेते हैं। पहले आप देखिए कि कमाल खान जैसे लोग हुआ करते थे। अयोध्या में 2010 से 12 के बीच में वह वहाँ जाकर खड़े हैं, अपनी बात कह रहे हैं और रवीश कुमार जी सुन रहे हैं और बात की जा रही है कि मनमोहन सिंह की सरकार में क्या समस्याएँ हैं? यूपीए की सरकार में किस तरह की समस्याएँ हैं, उस पर चर्चा होने के बाद शो को बंद किया जा रहा है। न तो कोई उठाने के लिए आता है, न किसी तरह की एजेंसी उनके पीछे लगाई जाती है और न ही सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल नहीं किया जाता है क्योंकि उनका काम ही है सवाल उठाना और फिर अगले दिन उठाते हैं और किसी गाँव में जाकर कहते हैं कि मनमोहन सिंह को यह सोचना चाहिए कि अगर वह कहते हैं कि देश प्रगति कर रहा है, तो उन्हें इस गाँव में आना चाहिए। तो इस तरह की जब बातें हम सुना करते थे, तो लगता था कि रीढ़ की हड्डी है और पत्रकारिता अपने क़दमों पर खड़ी है।
जब इंदिरा गांधी की सरकार थी और बाद में पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार बनी, तो कहीं न कहीं उस वक़्त भी मीडिया के ऊपर दबाव था। आपातकाल के दौरान भी कई तरह के रेस्ट्रिक्शन्स मीडिया के ऊपर थे, तो उसके बाद में क्या मीडिया नहीं खड़ा हुआ? उन्होंने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ मीडिया में एक ऐसी तस्वीर भी छपती है कि जहाँ एक आदमी कूड़े में से इंदिरा गांधी की तस्वीर उठा रहा है। वह फ़ोटो लगाना, वह बात कहना, यही बात है कि हम कह सकते थे कि रीढ़ की हड्डी है। क्या आप किस तरीक़े से अपनी बातों पर खड़े हो पा रहे हैं। पहले लोग झुका करते थे जूते बाँधने के लिए। पहले लोग झुका करते थे अपना सामान उठाने के लिए। अब जो मीडिया झुक रहा है, वह सीधा तलवों के पास जाकर झुक रहा है। उन्हें जूते के सिवा कुछ नज़र नहीं आ रहा और वही बात है कि मीडिया फिर से उठेगी। जब-जब नदी छलकती है, तो वह शांत भी फिर अपने आप हो जाती है, तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आज नहीं तो कल एक ऐसा समय आएगा कि पत्रकारों की यह जो राज्यसभा की लालसा है, यह इच्छा है जिस समय मन से चली जाएगी, तब आप देखिएगा।
मैं एक मीडिया हाउस में पहले स्क्रिप्ट राइटर हुआ करता था, कोरोना समय की बात है, घर से ही हम उन्हें लिखकर भेजा करते थे। मैं आपको बता सकता हूँ कि जिस गंभीरता के साथ में हम लिखा करते थे, हमारी आँखों से आँसू आ जाया करते थे वह आँकड़ा पढ़ के, कितने लोगों की मौत हुई। इतने लोग इस वक़्त ज़िंदगी और मौत के बीच में झूल रहे हैं। कइयों को ऑक्सीजन सिलेंडर तक नहीं मिल पा रहा है। बेसिक फ़ेसिलिटीज़ उन तक नहीं पहुँच पा रही हैं और हमें भी ऐसा लगता था कि जिस गंभीरता के साथ में हम लिख रहे हैं, हम भेजेंगे और एंकर जब इसे पढ़ेगा, तो वह भी कहीं न कहीं अपने मन को टटोलेगा और उस पर एक गंभीरता के साथ में अपनी बात और हमें लगता था कि जिसे लिखते हुए हम अपने आँसू रोक नहीं पा रहे हैं, जब वह उसे पढ़ेगा, तो अपने आप को कैसे सँभालेगा? लेकिन हम जब देखते थे, तो हैरान हो जाया करते थे। कितनी आसानी से और हँस कर वह उन चीज़ों को नज़रअंदाज़ कर देते और हमें ऐसा लगता था कि वह जब बोल रहे हैं, वह एक व्यंग्य है हमारी लेखनी पर। यह भी एक पत्रकारिता है कि आप बिल्डिंग में सूट पहनकर बैठे हैं और आपके ऑफ़िस में ए.सी. चल रही है लेकिन जिस शहर में आप हैं, 45 डिग्री की ज़हर सी धूप में बाहर लोग परेशान हैं लेकिन आप कह रहे हैं कि आपको सर्दी लग रही है। यह भी एक पत्रकारिता है। और यह मीडिया तब तक वापस से अपनी पहचान हासिल नहीं कर पाएगा, जब तक वह ग्राउंड पर लोगों से ख़ुद को जोड़ता नहीं। अगर आप ऐसी जगह पर जाएँगे ही नहीं जहाँ कहीं-कहीं दिनों तक महिलाएँ, माताएँ, बहनें पीरियड्स में पैड नहीं इस्तेमाल कर पा रहीं। पुरुष हैं जिनके हाथ टूटे हुए हैं, अपाहिज हैं लेकिन वह अपने परिवार के लिए दो वक़्त का खाना जुटाने में अपने हर एक ख़ून की बूँद लगा रहे हैं। वहाँ जाकर जब आप सवाल करेंगे सरकार से और प्रशासन से, तब आप उनकी आवाज़ बन सकते हैं और आप में ख़ुद में भी एक इच्छाशक्ति आएगी सवाल करने की और यह इच्छाशक्ति राज्यसभा सीट की लालसा रखने से तो नहीं आने वाली। और यह इच्छाशक्ति इन सब बातों से बहुत ऊपर होगी।
अरमान: जब आपातकाल के बाद में वह फिर से अपने पैरों पर खड़ा हुआ और न सिर्फ़ बाद में, बल्कि आपातकाल के दौरान भी अख़बारों ने और मीडिया ने जो साहस दिखाया था, वह इतिहास में दर्ज है लेकिन कहीं न कहीं एक फ़र्क़ तो है कि जब आपातकाल के बाद में चुनाव होते हैं, इंदिरा गांधी ख़ुद अपनी सीट हार जाती है लेकिन आज के जो दृश्य हम देख रहे हैं जिस पर इलेक्शन कमीशन पर भी सवाल उठ रहे हैं और इन सब के बाद में युवाओं पर एक सबसे बड़ा सवाल उठता है कि ऐसे चंचल मन को किस तरीक़े से बाँधा हुआ है। अब हम कह सकते हैं कि उन लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया है। वह सिर्फ़ एक नाव में सवार हो जाना चाहते हैं और जहाँ वह कश्ती उन्हें ले जा रही है, वह शांति से वहीं चले जा रहे हैं। इस स्थिति को एक पत्रकार कैसे देखता है?
आयुष: बिलकुल आपने सही फ़रमाया और जैसा कि आपने कहा कि इंदिरा गांधी जी के समय की बात करते हुए नाव को जो किनारा दिया है, इस पूरी चीज़ के ऊपर में यही कहना चाहूँगा कि इंदिरा जी के समय पर और मोदी जी के समय में जो पत्रकारों की हालत है, उस समय तो अगर कहो, कम से कम आप लिख पा रहे थे। नागार्जुन जो कभी हुआ करते थे, उनके पास इतना साहस था कि उन्होंने लिख दिया था कि "इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ सत्ता की भूख में, भूल गई आप को..." इस तरह की उन्होंने पूरी कविताएँ लिख दी। उस समय के जितने पत्रकार हुआ करते थे और जो सारी चीज़ें समझते थे और फ़्रंट पेज पर इंदिरा गांधी जी की फ़ोटो छपती थी और लिखा जाता था 'ओन्ली मैन इन द कांग्रेस'। आपातकाल के बाद भी ख़ूब व्यंग्य किया और आप में वह हिम्मत भी थी और आज़ादी भी। अगर सरकार आपको पुरस्कार दे रही है, तो आप धड़ल्ले से मना भी कर सकते हैं कि हमें यह पुरस्कार नहीं चाहिए। उस समय जितना दबाव और प्रेशर मीडिया के ऊपर बनाया गया था, अगर वही इस तरह का प्रेशर आज बना दिया जाए, तो मैं कह सकता हूँ कि कोई गुंजाइश ही नहीं बचेगी कि जो थोड़े-बहुत आज बचे हुए हैं, वह भी नतमस्तक हो जाएँगे। अगर उस वक़्त लोग झुके थे, तब भी इतनी हिम्मत थी कि उन्होंने सर उठाकर सवाल करना जारी रखा। उस वक़्त भी आपातकाल में प्रेस कॉन्फ़्रेंस की गई। आर.के. धवन जो उनके सेक्रेटरी हुआ करते थे, वह प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सवाल लिया करते थे, कम से कम इतनी आज़ादी थी। आसमान से गिरे और खजूर में अटके, तो कम से कम यह था कि अगर आप में प्रतिबंध लगाए गए हैं, तो आप सवाल कर रहे हैं।
उस वक़्त लोगों में साहस था कि आप प्रधानमंत्री के मुँह पर कह सकते थे कि आपने क्या काम किया है और यह चीज़ हमारे बड़े हमें सुनाया करते थे, बताया करते थे। किस हमारे प्रोफ़ेसर, पिताजी, घर-परिवार के लोग और बाहर के जो उस वक़्त के लेखक, वह चीज़ें बताया करते थे और आज देखिए, अगर एक नोटिस आ जाए सरकार की तरफ़ से, तो वह तो बस अपना पूरा सामान समेट के कह देते हैं कि हम तो पार्टी जॉइन कर रहे हैं। इस तरह के पत्रकार भी देखने को मिलते हैं। इंदिरा जी के समय में और आज के समय में जो एक सबसे बड़ा फ़र्क़ देखने को मिलता है पत्रकारों में, उस वक़्त इतनी हिम्मत और हौसला था कि सवाल कर सकें और नेताओं में भी इतना दम था और समझने की ताक़त थी कि सवाल ले भी पाते थे। मौजूदा वक़्त में जो पत्रकार हैं और मीडिया के लिए काम कर रहे लोग, सब मुझसे बड़े हैं और कम से कम दस साल का एक्सपीरियंस लेकर चल रहे हैं लेकिन जब मैं उन्हें देखता हूँ, जिनके पास सवाल करने की ताक़त है, जिनका ख़ुद का प्राइम शो चल रहा है, अगर उन्हें ही वह ताक़त नहीं दिख रही है। अगर वह लोग डिनर पर जाते हैं और उनकी झुकने वाली फ़ोटो वायरल हो जाती है और यह बातें सिर्फ़ एक फ़ोटो तक न रहकर उनकी न्यूज़ प्रेजेंटेशन में झलकने लग जाती है कि जब वह एक मंत्री का इंटरव्यू कर रहे हैं और सवाल उनके देखिए, वह करते हैं कि मंत्री जी बताइए दिल्ली में पाँच सबसे पसंदीदा जगह कौन सी है आपकी खाने की? इस स्तर के सवाल होते हैं। इस तरह के सवालों में पत्रकारिता तो कहीं नज़र नहीं आती। जो उनका निजीपन है, वह झलकता है जिसमें जनता का कोई जुड़ाव नहीं है।
Fatima Khan
मानवाधिकार और सामाजिक पत्रकारिता में अंतरराष्ट्रीय पहचान रखने वाली ह्यूमन राइट्स एंड रिलीजियस फ्रीडम अवॉर्ड्स से समादृत युवा पत्रकार फातिमा ख़ान से कॉलम शब्द संवाद हेतु अरमान नदीम की खास बातचीत ।
संवेदनशील विषयों में आप स्टोरी कवर कर रहे हैं तो उनकी सुरक्षा भी आपकी प्राथमिकता में रहनी चाहिए - फातिमा ख़ान
परिचय फातिमा ख़ान
फातिमा ख़ान संयुक्त राज्य अमेरिका में पत्रकारिता कर चुकी दिल्ली से ताल्लुक़ रखने वाली घुमक्कड़ पत्रकार रही हैं, जिन्होंने भारत के कोने-कोने की यात्राएं कर घृणा ,अपराधों की जाँच और सामाजिक उथल-पुथल की रिपोर्टिंग की है। 2024 में शिकागो में आयोजित ह्यूमन राइट्स एंड रिलीजियस फ्रीडम अवॉर्ड्स (HRRF) में यंग जर्नलिस्ट ऑफ़ द ईयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया, जो भारत में घृणा अपराधों की उनकी साल भर की कवरेज के लिए प्रदान किया गया था। कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान 2021 में उन्होंने लगातार 45 दिन सड़क पर रहकर देश के सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्यों से संस्थागत पतन की भयावह कहानियाँ रिपोर्ट कीं—जिनमें नदियों में तैरती लाशें और अस्पतालों में ऑक्सीजन की भारी कमी जैसे दृश्य शामिल थे। इस कवरेज के लिए उन्हें इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
फातिमा को 2020 में उत्तर प्रदेश में एक दलित महिला के बलात्कार और हत्या की रिपोर्टिंग के लिए उत्कृष्ट लैंगिक रिपोर्टिंग हेतु संयुक्त राष्ट्र लाडली अवॉर्ड भी मिला। 2023 में वॉशिंगटन डीसी में उन्हें कर्नाटक के हिजाब प्रतिबंध विवाद पर बनाई गई डॉक्यूमेंट्री के लिए एक और HRRF अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। वह 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम विरोधी आंदोलन और 2020 के दिल्ली दंगों की रिपोर्टिंग के लिए भी जानी जाती हैं। भारत में धर्मांतरण विरोधी कानून के दुरुपयोग पर की गई उनकी जाँच 2024 में अंतर्राष्ट्रीय SOPA अवॉर्ड्स की फाइनलिस्ट रही।
अरमान: पत्रकारिता में आपकी शुरुआत किस तरह हुई?
फातिमा: अगर मैं अपने शुरुआती दिनों की बात करूँ तो पत्रकारिता में 2018 से शुरू की और जो वजह रही कि मैंने पत्रकारिता को ही और अब सात साल हो चुके हैं, लेकिन पत्रकारिता को ही क्यों चुना, उसकी वजह यह थी कि बचपन में कुछ चीजों को लेकर मुझे काफी घुटन महसूस हुआ करती थी, जो कि आसपास का माहौल था। काफी चीजें जो मेरे आसपास घटती थीं, समाज में और अपने स्कूल में जो मैं चीजें देखा करती थी, और इन सब माहौल में रहते हुए मैंने धीरे-धीरे लिखना शुरू किया। इन सब चीजों पर अपनी आवाज़ बुलंद की और डिबेट हिस्सा लेना शुरू किया। और यह सब मैंने अपने स्कूली टाइम में ही शुरू कर दिया था, और जब कुछ समझ आईं बातें तो मुझे यह महसूस हुआ कि यह पत्रकारिता ही है, जो मैं कर सकती हूँ । और उसी के बाद से मैंने इस पर काम करना शुरू किया। ऐसा नहीं था कि किसी एक्सीडेंटल तरीके से मैं पत्रकारिता में आ गई या ऐसे कोई हालात बन गए कि मुझे उसके ऊपर काम करना पड़ा। ऐसा बिल्कुल नहीं था। यह मैंने सोच रखा था और क्योंकि मैं इसमें पहले किसी को नहीं जानती थी और ना ही मेरे किसी तरह के पत्रकारिता में संबंध थे, इसलिए मुझे पूरा रास्ता खुद ही तय करना पड़ा। खुद से ही सब कुछ शुरू करना पड़ा। किसी तरह की कोई गाइडेंस मेरे पास नहीं थी। और उसके बाद तो फिर लगातार काम करते ही रहे। काफी स्टोरी कवर की। बहुत से लोगों को काम पसंद आया और कईयों को नहीं भी आया। और क्योंकि अब देश में इतना सब कुछ हो रहा है, तो उसके बाद तो यह सवाल ही पैदा नहीं होता कि इस बारे में कुछ ना लिखा जाए, तो इस तरह से यह सफर तय हुआ पत्रकारिता का।
अरमान: आपने वर्तमान समय की बात की और एक बड़ा ही सामान्य सा ख़्याल हर किसी के दिमाग में आता है, क्या मौजूदा वक़्त की राजनीति विचारधारा से हटके व्यक्ति केंद्रित हो गई है? तो क्या यह सिर्फ पिछले 10 से 15 सालों में हुआ है या इसकी एक लंबी कहानी हमें नज़र आती है?
फातिमा: बिल्कुल, सबसे पहले तो मैं यही कहूँगी कि मुझे भी लगता है कि व्यक्तिगत केंद्रित जो चीज हो रही है, वह वाकई में एक बड़ी समस्या है, लेकिन मुझे लगता है कि भारतीय राजनीति हमेशा से ही व्यक्तिगत केंद्रित थी। जितनी मेरी समझ है और जितना मैंने पढ़ा है, उस हिसाब से मुझे लगता है कि जिस हिसाब से एक ताकतवर व्यक्तित्व एक बड़ा चेहरा उस चीज पर हमेशा से ही लोगों की नजर रही और उसे ही ज्यादा वैल्यू हमेशा से मिली है। और ऐसा मैं बिल्कुल नहीं कहूँगी कि विचारधारा आज के वक़्त में बिल्कुल ही खत्म हो चुकी है या फिर उसका उतना महत्व नहीं रहा है, क्योंकि विचारधारा के नजरिए से अगर हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री हैं या पूरा एडमिनिस्ट्रेशन है तो वह चीज भी देखनी बड़ी जरूरी है क्योंकि विचारधारा के बलबूते पर ही वह वहां पहुँचे हैं, जहाँ वह इस वक्त काबिज़ हैं। हाँ, लेकिन हम यह कह सकते हैं कि पॉलिसी, जो असल में समाज के लिए होनी चाहिए, समाज सेवा के माध्यम से होनी चाहिए, वह इतना अब जरूरी या केंद्र में नहीं आ रहा है। सोशल वेलफेयर जो हमेशा से एक बड़ा महत्व रखती थी, डिसीजन मेकिंग में इलेक्टोरेट के, अब वह चीज मेरे ख़्याल में बड़ी ही कम हो चुकी है और अब आइडियोलॉजी को महत्व बहुत ज्यादा देना शुरू कर दिया गया है। आप भी जानते हैं कि पर्सनैलिटी कल्ट वह बहुत ज्यादा बढ़ चुका है, तो यह एक बड़ा बदलाव रहेगा पहले में और मौजूदा वक़्त में।
अरमान: जब भी आप किसी स्टोरी को कवरेज करती हैं, बहुत से सेंसिटिव इश्यूज होते हैं और आपका पूरा क्राइटेरिया ही बड़ा ही सेंसिटिव मुद्दों से जुड़ा हुआ है। जब आप इन्हें लिखते हैं और पब्लिश करते हैं, तो पहली चीज आपके ख़्याल में क्या आती है? खुद की सुरक्षा या उस कवरेज की प्रतिक्रिया और संस्था का रवैया उसके बाद में क्या होगा?
फातिमा: बिल्कुल, कवरेज के दौरान अगर मैं बताऊँ कि जो सबसे पहली चीज ख़्याल में आती है, वह यही रहती है कि जो सब्जेक्ट है स्टोरी में, जिनके बारे में आप लिख रहे हैं, कवरेज कर रहे हैं, उनकी कहानी को आप कितने बेहतरीन ढंग से और सच्चाई के साथ में लिख सकते हैं और पेश कर सकते हैं। और आपके लेखन के साथ में उस कवरेज पर कितना जस्टिस होता है, वह कहानी जो आपके पास है, उसके साथ न्याय करना भी आपके हाथ में होता है। और उसके बाद में जिन्होंने आपको वह बातें बताई हैं, जिस चीज के ऊपर आपने कवरेज की है, जो सेंसिटिव इशू आप राइज कर रहे हैं, उनकी सुरक्षा भी दिमाग में प्राथमिकता पर रहती है कि अगर हम उनके नाम ले रहे हैं या चेहरे दिखा रहे हैं, तो फिर उनकी सुरक्षा भी खुद से ज्यादा दिमाग में आती है, क्योंकि कई बार बहुत आसान हो जाता है उन्हें केंद्र से हटा देना, चाहे वह कहानी उनकी ही क्यों ना हो और पत्रकार खुद के बारे में सोचने लग जाते हैं कि अगर मैं खुद लिख रही हूँ और वह मेरी स्टोरी है या फिर उसका क्या इम्पैक्ट करेगा या नहीं करेगी, फिर कितने लोग इसे पढ़ेंगे। मेरी नजर में यह सारी चीजें सेकेंडरी हो जाती हैं। पहली चीज फिर मैं वही कहूँगी कि उन लोगों की सुरक्षा प्राथमिकता में रहनी चाहिए और मेरी प्राथमिकता में भी यही रहता है कि उन्हें किसी तरह की तकलीफ ना हो उस कवरेज के बाद में। और उसके बाद में यह चीज भी होती है कि इस कवरेज के बाद में, इस स्टोरी के बाद में क्या उस व्यक्ति के हालात और ज्यादा बिगड़ेंगे या सुधरेंगे, यह चीज भी ध्यान में रखनी होती है। और अगर इन दोनों चीजों में से भी कुछ ना हो तो कम से कम जो स्थिति पहले थी, वही रहे। किसी भी तरह का नुकसान या गिरावट उनकी स्थिति में ना आए।
अरमान: आपने जेंडर पर काफी कवरेज किया है और मौजूदा वक़्त में भी हम देख रहे हैं कि LGBT कम्युनिटी को केंद्र में लाने का प्रयास किया जा रहा है। तो क्या आपको लगता है कि यह सब रिपोर्ट प्रतीकात्मक है या फिर सच में गंभीरता उन सब में आपको नज़र आती है?
फातिमा: आपका यह सवाल बड़ा ही दिलचस्प है और इस सवाल पर जहाँ तक मेरी समझ है, कहना चाहूँगी कि पिछले कुछ सालों से ही, जब से धारा 377 में बदलाव लाया गया और उस सबके बाद में जो एक रवैया रहा स्टेट का, मैं किसी पार्टी की इसमें बात नहीं करना चाहती और कोर्ट्स का भी वह इम्प्रूव हुआ है और उससे मैं हमेशा से ही रहती हूँ कि जो लीगल राइट्स हैं, वह फाउंडेशन हैं और दूसरे किसी भी राइट्स के लिए अगर आपका कोर्ट और आपका लीगल सिस्टम आपके समर्थन में पीछे खड़ा रहेगा, उसके बाद में आप दूसरी चीजों पर और बेहतर काम कर सकते हैं और बेहतर हो सकते हैं। फिर उसके बाद चाहे वह एम्प्लॉयमेंट है या फिर इकोनॉमिकल मसले हैं या फिर और कोई भी चीज है, जिन्हें आप समझते हैं, जो एम्पॉवरमेंट की तरफ आप देखते हैं, वह तभी आ पाएँगे, जब आपके बेसिक प्राइमरी फंडामेंटल राइट्स प्रोटेक्ट रहें, जो कि अब हमने पिछले कुछ 10-15 सालों में देखा है, LGBT कम्युनिटी की तरफ़ होते हुए। और फिर उसके बाद में क्या हो जाता है कि जब एक बार कुछ स्थापित हो जाता है और एक मानक के रूप में स्थापित हो जाता है और यह मान लिया जाता है कि इनको लीगल राइट्स मिलने चाहिए और वह भी हम सब जानते हैं कि लड़ाई बहुत लंबी होती है और आप भी जानते हैं कि फिर उसमें मैरिटल राइट्स और दूसरी तरह के राइट्स अभी उनमें काम करना बाकी है, लेकिन मैं जो कहना चाहती हूँ, एक फाउंडेशन सेट हो चुकी है। उसके बाद में चीजों में बदलाव और बेहतर बदलाव होता हुआ नज़र आ रहा है और मुझे उम्मीद है कि आगे भी इसी तरह काम बेहतरी की तरफ चलता रहेगा।
अरमान: पिछले दिनों हमने राधिका यादव मर्डर केस देखा, जिसमें एक मुस्लिम एंगल दिखाने की कोशिश की गई और कहीं ना कहीं उसे क्राइम को जस्टिफाई करने का प्रयास भी हुआ। इसमें किसी भी तरह की सच्चाई नहीं थी और अगर है भी तो क्या ऑनर किलिंग को हमारा समाज इस हद तक जाकर सपोर्ट करता है आज भी?
फातिमा: बिल्कुल, यह एक तरह का हम एग्जांपल कह सकते हैं आज के वक़्त में और किसी भी तरह के केस को हम बड़े ही आसानी के साथ में कम्युनलाइज कर सकते हैं। यह सोचने वाली बात है और यह जो बातें जिस तरह की करते हैं लोग और किसी भी तरह का उनके लिए न्याय आता है और इसके बाद में यह देखना होगा कि यह इतना आसान क्यों हो चुका है? हमें गुमराह करना क्यों इतना आसान हो चुका है आज के वक़्त में? और सिर्फ यह कह देना उसे जस्टिफाई करने के लिए कि इसमें एक मुसलमान का एंगल है, क्योंकि किसी चीज को छुपाना है, इसलिए दूसरी चीज को उस पर हावी करने की एक कोशिश रहती है। कुछ तो ऐसा बड़ा काम हुआ है, कुछ ऐसी गलत हरकत हुई है, जिसे छुपाना इतना ज्यादा जरूरी हो चुका है कि उसे कम्युनलाइज करके एक मामले में लोगों को मुद्दे से हटा देना, उसे कवर करने के लिए क्या-क्या कहना कि वहाँ देखो एक मुसलमान लड़के का एंगल है और यह सब क्यों हो रहा है? सिर्फ इसलिए कि आप जो सही मुद्दा है, सही सवाल है, उसे ना पूछें और सही सवाल यह है कि हमें यह जानना चाहिए और हमें इस चीज की तह तक जाना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ था? ऐसा वाकई में उनके साथ में क्यों किया गया? उनके फादर ने यह किया तो ऐसा सामाजिक इशू क्या था उनके सामने? लोग यह सवाल क्यों पूछें? क्योंकि एक मेहनत का काम है। एक मेहनत का काम है समाज के लिए कि हम अभी इतने रिग्रेसिव क्यों हैं? उससे बेहतर होगा कि हम ऐसी कोई कहानी बना दें। और यह सवाल पेरेंट्स के सामने भी आता है कि ऐसी क्या चीजें हैं और क्या हमारी पैरेंटल फिलॉसफी है, उस नजरिए में किस तरह के बदलाव की जरूरत है? तो यही है कि इस तरह के सवाल हम क्यों करें खुद से भी तो उस चीजों से बचने के लिए हम खुद से ही इस तरह की चीज और कहानी बनाने लगते हैं। और इसके बाद में राधिका हैं, उनके दोस्त वह भी सामने आए और उन्होंने कहा और यह साफ किया कि ऐसा किसी भी तरह का कोई एंगल नहीं है और उन्होंने जो भी सोशल बैकग्राउंड के बारे में बताया राधिका के, और उन्होंने काफी चीजें साफ की। तो यह भी एक बहुत जरूरी चीज है कि अगर इस तरह की कोई रूमर्स या फिर गलतफहमियाँ समाज में फैलाई जा रही हैं, तो उस स्टोरी उस पर्सनालिटी से जुड़े हुए लोग आए और उन चीजों को क्लियर करें। यह एक बहुत बड़ा स्टैंड रहता है।
अरमान: पत्रकार की सुरक्षा से जुड़ा सवाल आपसे है कि हमने जर्नलिस्ट मुकेश चंद्राकर जी का केस देखा और यह तो वह चीजें हैं जो लोगों के सामने कहीं ना कहीं दबाने के बाद भी आ जाती हैं क्योंकि बहुत सी ऐसी चीजें घटनाएँ हैं, जो सामने कभी आ ही नहीं पातीं, जो कि इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म और उनसे जुड़े हुए पत्रकारों के साथ में होती हैं, क्योंकि सबसे बड़ी जो चीज है वह जिम्मेदारी की बात आती है, जो सरकार की है। लेकिन इस एंगल को हटाकर भी अगर हम देखें, अपनी तरफ से खुद हम किस तरह से इन चीजों से बच सकते हैं और वह कौन से सुरक्षा के पहलू हैं, बरकरार रख सकते हैं, जिसमें और इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म को हम प्रमोट कर सकते हैं, सुरक्षा दे सकते हैं?
फातिमा: इस मुद्दे पर मैंने काफी सोचा है मगर, और वही बात घूम-फिर कर आ जाती है कि अगर हम हिंदुस्तान में देखें तो इंस्टीट्यूशंस वीक हो चुके हैं। हर लिहाज से उन्हें कमजोर और एक तरफ करने की कोशिश हो रही है। फिर मीडिया हाउस तो हमें पता ही है कि जो अधिकतर मीडिया हाउसेस हैं, अब वह बिक चुके हैं और क्योंकि अब वह पूरी तरीके से एक तरफ हो चुके हैं, तो मुझे उनसे कोई उम्मीद भी नज़र नहीं आती। लेकिन दूसरी तरफ जो इंडिपेंडेंट मीडिया हाउसेस हैं, तो उनके बारे में मुझे लगता है कि सबसे पहले तो दो चीजें हैं। एक तो हमें कौन सी स्टोरी पर काम करना है, किन्हें प्राथमिकता देनी है, क्योंकि आप एक बार में हर स्टोरी को कवरेज उस तरीके से नहीं दे सकते हैं। और जिस स्टोरी को आप प्राथमिकता दे रहे हैं और उसके कवरेज में जो जर्नलिस्ट है, उसकी सुरक्षा के लिए आप खुद क्या कर रहे हैं, जैसे कि बहुत ही सिंपल चीजें हैं कि जब कोई दंगा फसाद हो रहा है, वहाँ अगर आपका पत्रकार कवरेज करने के लिए जा रहा है, वहाँ उन पत्रकारों को कई ऑर्गेनाइजेशंस हैं, जो बेसिक सुरक्षा वाली चीज भी मुहैया नहीं करवाती हैं और जो कि काफी कम दामों में भी चीजें मिल जाती हैं, जो कि प्रॉपर रॉयट गियर है, जिन्हें हम आम भाषा में दंगा विरोधी उपकरण कहते हैं, वह भी उन पत्रकारों को मुहैया नहीं करवाई जाती। यह सारी जो प्रैक्टिकल चीजें हैं, इनसे भी बहुत फर्क पड़ता है, लेकिन इसके अलावा भी जो सबसे ज्यादा जरूरी चीजें हैं, जो ध्यान में रखी जानी चाहिए, वह कंफर्ट, जो एक पत्रकार को महसूस होना चाहिए, वह चीज उन्हें महसूस करनी चाहिए कि अच्छा ठीक है। और जिस तरीके से हम कह सकते हैं कि यह एक बहुत ब्रेव जर्नलिस्ट है। एडिटर ने इसे यहाँ जाने के निर्देश दिए और वह वहाँ जाकर रिपोर्टिंग करके आई। मुझे लगता है कि हमें इन चीजों का पुनर्विचार करना बड़ा ही जरूरी है। क्या उससे और कोई बेहतर तरीका हो सकता है स्टोरी कवरेज करने का? अगर मैं अपना उदाहरण बताऊँ कि अब मैं सबसे ज्यादा कंफर्टेबल रही हूँ, रिस्क लेने में मैं तभी रही हूँ कि जब मुझे पता है कि मेरे एडिटर एक कॉल पर उपलब्ध रहेंगे और मुझे जिस भी चीज की जरूरत होगी, वह मुझे मुहैया करवाई जाएगी। रात के कितने भी बजे हों, मैं उनसे संपर्क कर सकती हूँ। अगर रात को मैं फील्ड पर हूँ, मैं उन्हें उस वक़्त भी संपर्क कर सकती हूँ, बिना किसी झिझक के। वह सेंस ऑफ कंफर्ट तभी आएगा, जब एडिटर और आपकी संस्था आपके साथ खड़ी रहेगी और आपको यह भी पता हो कि आपका एडिटर की कोई मजबूरियाँ नहीं हैं और अगर इस तरह की चीजें हैं तो वह एक अलग एंगल ले लेती है क्योंकि कॉरपोरेट सेक्टर की अगर हम बात करें तो आपको लगता है कि इतना डिसीजन मेकिंग जो हो रहे हैं, जो कि नहीं है और रिपोर्ट करना है एक बिजनेसमैन को जिसने कभी रिपोर्टिंग की ही नहीं है, वह एक इंडिपेंडेंस मेंटेन करना भी काफी जरूरी है ताकि जर्नलिस्ट को यह भी लगे कि जिसे मैं रिपोर्ट कर रही हूँ या कर रहा हूँ, उसके पास में अथॉरिटी है।
अरमान: आपने अमेरिका में भी लंबे वक़्त तक काम किया। मौजूदा वक़्त में अगर हम मीडिया की तुलना करें तो भारत और अमेरिका की मीडिया में आपको बुनियादी समानता क्या नज़र आती है? या फिर आपकी नजर में वह बिल्कुल एक दूसरे से अलग है?
फातिमा: मेरे ख़्याल में जो एक सबसे बड़ी समानता है अमेरिका और भारत के मीडिया हाउसेस में, एक लंबे वक़्त से उनके भी मेनस्ट्रीम मीडिया हाउसेस के जो मालिक हैं, वह बिजनेसमैन रहे हैं। लेकिन एक तरह से स्थिति को मेंटेन रखा गया। उदाहरण के लिए अगर मैं बात करूँ तो मान कर चलिए वॉल स्ट्रीट जर्नल है, उसके बिजनेस ओनर और उनके पूरी थॉट प्रोसेस को कहा जाता था कि ओपिनियन क्षेत्र में इनका इन्फ्लुएंस दिखेगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। फिर अगर हम बात करें वॉशिंगटन पोस्ट की, वहाँ पर भी कहा गया कि इसका इन्फ्लुएंस ओपिनियन पोल में दिखेगा। इस तरह की कवरेज के बाद में भी अगर आप कोई स्टोरी देखते हैं तो आपको लगेगा की बड़ी ही बेबाकी से कवरेज की गई है, लेकिन फिर आप उसके बाद में देखेंगे की काफी स्टोरी हैं, जिसमें बिल्कुल भी ऐसा नहीं है, जिसमें बिल्कुल भी इंडिपेंडेंस नहीं है, जिसमें अब यह ढूंढा जा रहा है कि इंडिपेंडेंट मीडिया का होना कितना जरूरी है, जो कि यह कन्वर्सेशन इंडिया में पहले हो चुकी थी और अब यूएस में इस पर बात की जा रही है कि इसका जो इम्पैक्ट है, मेरी नजर में बहुत ही गहराई से अब देखा जा रहा है यूएस मीडिया में और यूएस इंस्टीट्यूशंस में और किस इशू, किस मुद्दे के ऊपर बात हो रही है, यह भी बहुत जरूरी हो जाता है। उसका भी बड़ा फर्क पड़ता है कि कुछ मुद्दों पर अमेरिकी मीडिया बहुत ज्यादा प्रोग्रेसिव होगी, लेकिन बहुत ही ज्यादा ब्रेवली उसे हैंडल करेगी, लेकिन कुछ ऐसे इश्यूज होंगे, जैसे मिडल ईस्ट के कुछ मसले हैं, वहाँ जब आप उनकी कवरेज देखेंगे तो आपको लगेगा, यह तो बिल्कुल ही टिपिकल यूएस गवर्नमेंट की पोजीशन है, वही हमें यहाँ भी दिख रही है। तो मुझे लगता है कि बहुत से मुद्दों पर अमेरिकी मीडिया का रुख मिला-जुला रहा है दुनिया भर के बहुत से मामलों पर।
अरमान - कॉलम शब्द संवाद हेतु कीमती समय देने के लिए आपका बहुत आभार ।
फातिमा - जी आपका भी बहुत शुक्रिया ।
Dipali Khandelwal
दीपाली खंडेलवाल
कॉलम शब्द संवाद हेतु फोर्ब्स 30 अंडर , 30 एशिया 2025 की सूची में शामिल भारत की सुप्रसिद्ध फूड रिसर्चर और स्टोरी टेलर दीपाली खंडेलवाल से युवा साहित्यकार अरमान नदीम की खास बातचीत ।
मेरे दिमाग में फिर वह सवाल आने लगे कि हम इन्हें क्यों ढक रहे हैं फिर चाहे वह हमारा पहनावा हो, हमारा खाना हो हम उसे गौरव के साथ क्यों नहीं आगे बढ़ा रहे। - दीपाली खंडेलवाल
दीपाली खंडेलवाल एक फूड रिसर्चर और स्टोरीटेलर हैं, जो भारत की समृद्ध धरोहर को भोजन के माध्यम से खोजती हैं। उन्होंने द काइंडनेस मील की स्थापना की, जो एक वैश्विक आंदोलन है, जिसका उद्देश्य भोजन को पहचान, गरिमा और पीढ़ीगत गर्व का स्रोत पुनः स्थापित करना है। आज जब पारंपरिक खाद्य ज्ञान विलुप्त होने की कगार पर है, टीकेएम इसे जमीनी शोध के माध्यम से संरक्षित करता है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी सीखने के जरिए शिक्षित करता है, और स्वदेशी खाद्य प्रणालियों का सम्मान करने वाली नीतियों के लिए वकालत करता है।
टीकेएम का मिशन तीन स्तंभों पर आधारित है — संरक्षण, शिक्षा और वकालत, ताकि खाद्य संस्कृति खो न जाए बल्कि पीढ़ियों तक आगे बढ़ती रहे। भारत की पाक धरोहर को सहेजने के उनके कार्य के लिए उन्हें फोर्ब्स 30 अंडर , 30 एशिया 2025 की सूची में शामिल किया गया।
अरमान: आपकी शुरुआत किस तरह हुई फूड रिसर्च में आपकी दिलचस्पी किस तरह बनी?
दीपाली: इस सब के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था यह एक इत्तेफाक कह सकते हैं । मैं जयपुर में ही पली-बड़ी हूँ। और उस वक्त जयपुर काफी छोटा लगता था और स्कूल टाइम में हमेशा ऐसा लगता था कि स्कूल खत्म करते ही शहर से भागना है ,कुछ बड़ा करना है और उसके बाद में मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी पढ़ने गई और वहाँ पर अलग माहौल मिला । और वह मेरे लिए पहली बार था कि मैं खुद से कहीं पर कुछ कर रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अब अपने आप को समझ रही हूँ। और मुझे यह भी एहसास हुआ कि यह जो एजुकेशन स्ट्रक्चर है इससे मैं खुद को जोड़ ही नहीं पा रही हूँ और इसके चलते मैंने अपना कोर्स भी बदला मैं इकोनॉमिक्स पढ़ रही थी और उसके बाद में मैं इंग्लिश लिटरेचर को चुना लेकिन उसके बाद में भी वह एक कमी जो थी वह भर नहीं पा रही थी। और कहीं ना कहीं वह जो वक्त था वह काफी दिलचस्प था और वहाँ क्योंकि आप हर एक चीज को क्वेश्चनिंग कर रहे हो पहली बार आप किसी एडल्ट के रूप में हर चीज को देख रहे हो। और उसमें भी वह सवाल यह था कि क्यों आखिर मुझे बाहर जाना था। इस तरह के सवाल लगातार मेरे सामने थे जो मैं खुद से कर रही थी। और इन्हीं सबके चलते मैं जयपुर वापस आई और जब मैं अपने शहर वापस आ चुकी हूँ तो एक यह भी चीज थी कि कुछ ना कुछ तो करना पड़ेगा। और एक कोर्स होता है एक्चुअरियल साइंस और मैंने वह भी पढ़ना शुरू किया साथ ही साथ जवाहर कला केंद्र मैं वहाँ जाकर बैठा करती थी और वहाँ मेरा काफी आर्टिस्ट से मिलना हुआ काफी सारे शोस अटेंड किए । और उनसे बात करते हुए मुझे एक यह भी एहसास हुआ कि जब आप एक यंग इंडिपेंडेंट आर्टिस्ट के रूप में काम शुरू करते हो आपके पास बहुत सारे कन्फ्यूशियस और प्रेशर होते हैं और उसकी सबसे बड़ी जो जड़ होती है वह होती है फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ना होना कि अब आपके पास में वह स्किल तो है लेकिन उसे आप मोनेटाइज कैसे करेंगे। और फैमिली बैकग्राउंड से हमारा परिवार हमेशा से ही बिजनेस रिलेटेड रहा। और हमने एक काम करने के लिए स्टूडियो का फाउंडेशन किया और उसके प्रोग्राम जयपुर में भी किया और बाहर भी काफी सारे इंडिपेंडेंस आर्टिस्ट के साथ में काम किया। और उसमें हमने काफी लोक कलाकारों के साथ भी काम किया । वहाँ से मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। मैं आपको एक किस्सा बताना चाहती हूँ गाँव जयपुर से 40 किलोमीटर से दूर है और हम वहाँ अक्सर जाया करते थे । सुबह जाते थे और पूरा दिन वहाँ स्पेंड किया करते थे और उस गाँव में 35 से 40 परिवार रहा करते थे और वह हर बार हमारे लिए खाना बनाने का टर्न लिया करते थे हर बार अलग-अलग लोगों के यहाँ हम खाना खाया करते थे और वह जब भी कुछ खाने के लिए बनाते थे तो वह काफी हैवी होता था और क्योंकि आप राजस्थान में हो इतनी गर्मी के अंदर इतना हैवी खाना क्योंकि वह बड़े ही प्यार से बनाते थे तो हम सब भी उसी प्यार से उसको खाया भी करते थे। वह बनाते भी थे तो चावल, खीर या फिर आलू की सब्जी और वह चीज बार बार हमें खाने को मिलती थी यह चीज मैंने भी सोची क्या यह खुद भी इतना चावल खाते हैं क्योंकि जयपुर में जहाँ मैं रहा करती थी मेरे घर में इतना चावल नहीं बनता था। और एक बार यूँ हुआ कि हम जून जुलाई की गर्मियों में गए और उन दिनों में मेरी तबीयत भी कुछ खराब थी हमने वहाँ अपना काम निपटाने के बाद में जब खाने बैठे तो फिर से वही आलू छोले की सब्जी और चावल । क्योंकि हम वहाँ काम कर रहे थे पर वहाँ यह सोचा भी आने लग गया कि हम यह सब क्या कर रहे हैं। जैसा कि मैं आपको बताया कि वह इतने प्यार से इतने सम्मान से वह खिलाते थे तो लेकिन मैं बार-बार समझा भी रही थी कि मुझे बहुत गर्मी लग रही है मैं यह चीज नहीं खा सकती और मेरी तबीयत सही नहीं है फिर वह उसके बाद ऑप्शंस देने लग जाते हैं क्या आपके लिए आइसक्रीम मंगवा देते हैं और अब तो गाँव में भी कोल्ड ड्रिंक का काफी ट्रेंड है। इस वक्त क्या हुआ उनका बच्चा स्कूल से वापस आया और उन्होंने उसे दी छाछ-रोटी वह देखते हुए मुझे भी ख्वाहिश हुई के मुझे भी यही चाहिए और उन्होंने ऐसा दर्शाया किया कि उन्होंने मेरी बात को सुना ही नहीं और मैं थोड़ा जिद करते हुए उन्हें कहा कि मुझे यह दे दो मुझे यही खाना है तब उन्होंने कहा कि आपके लिए नहीं है या आपको अच्छा नहीं लगेगा । यह आपके लिए ताजा खाना बनाया है यह आप खाइए लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि यह चीज मुझे काफी पसंद है और घर में भी हम इस तरह से बची हुई रोटी और छाछ खाते हैं । लेकिन उनका क्या कहना था कि आप ताजा बना हुआ खाना खाइए इससे हो सकता है कि आपकी तबीयत और खराब हो जाए यह देहातियों का खाना है इस वक्त वह बच्चा वही आँगन में बैठकर खाना खा रहा था और जब उसने वह शब्द सुना वो रुक गया और वह उसे वक्त मुझे भी देख रहा है और अपनी माँ को भी देख रहा है। और उसकी आँखों से यह साफ झलक रहा था कि उसके मन में सवाल था कि क्या यह इतना खराब खाना है कि आप इन्हें नहीं दे सकती और वह मैं खा रहा हूँ। और जो उस वक्त उस लड़के का चेहरा था मैं कभी अपनी जिंदगी में वह अपने ज़हन से नहीं निकाल सकती। और वह एक पॉइंट ऐसा था कि मैं यह महसूस किया कि हम ऐसा क्यों सोचते हैं और वह एक क्लिक हुआ मेरे दिमाग में कि एक वक्त था कि जब मुझे भी जयपुर से जाना था और वह जो सवाल था वह खाने को लेकर नहीं था वह सवाल था कि ऐसा क्या हिस्सा है हमारे वजूद का कि हम उससे भागना चाहते हैं और इस तरीके से भागना चाहते हैं कि हम उसे ढलते रहते हैं दूसरों के सामने। और मेरे दिमाग में फिर वह सवाल आने लगे कि हम इन्हें क्यों ढक रहे हैं फिर चाहे वह हमारा पहनावा हो हमारा खाना हो हम उसे गौरव के साथ में क्यों नहीं आगे बढ़ा रहे।
अरमान: आपने अपनी बात में बड़ी ही खूबसूरती से गाँव के खाने की बात की और जब हम शहरों की बात करते हैं पारंपरिक भोजन खाया तो जा रहा है लेकिन उसे आज हम एक ट्रेंड की तरह फॉलो कर रहे हैं कि जब हम किसी रेस्टोरेंट में जाते हैं तब हम कहते हैं कि राजस्थानी थाली चाहिए जो चीज हमारे घर में ही बन रही थी उसे हम रेस्टोरेंट में जाकर बड़े चाव से कहते हैं सिर्फ एक ट्रेंड का हिस्सा बनने के लिए और एक बात यह जिस हद तक उसे कंज्यूम करना चाहिए था वह नहीं हो पा रहा है इसके ऊपर आपकी क्या राय है?
दीपाली: आपने बड़ी ही दिलचस्प बात कही, हम काफी सारे रेस्टोरेंट के साथ में काम कर रहे हैं और हमारा विचार भी है कि सिर्फ पारंपरिक भोजन ही नहीं उनके बनाने का तरीका और जो रेसिपी है उसे वापस लाया जाए और उसे रेस्टोरेंट टेबल से ही इंट्रोड्यूस करवाया जाए और आपने बिल्कुल सही कहा कि हमारा जो ज्यादातर कंजप्शन है वह जब हम बाहर जाते हैं उसे इनफ्लुएंस होकर ही कर रहे हैं हमारे घर में पास्ता किस तरीके से बनना शुरू हुआ हम जब छोटे थे तो हमारे घर को नहीं बनता था लेकिन हम बाहर जाकर कहते थे और घर जाकर उसकी डिमांड किया करते थे उसके बाद में उसका टेस्ट इंप्रूव होने लगा आप रेसिपीज को टीवी पर देखने लगे उसके शो आने लगे और फिर हमें बाद में यह भी चीज समझ आई कि जो इंग्रेडिएंट्स उसमें डाले जाते हैं पैकेट वाले वह हेल्दी नहीं है हम खुद भी उन्हें बना सकते हैं और फिर बाद में इसका एहसास हुआ कि जो हम पास्ता खरीद रहे हैं उसे भी हम पूरी तरीके से घर में बना सकते हैं । इटालियन पास्ता होता है वह तो खुद अपने घर में बनाते हैं क्योंकि जब हम कहते हैं कि विदेशी खाना अच्छा नहीं है मुझे तो इस बात से भी बड़ी ज्यादा दिक्कत है क्योंकि आप उस खाने का जो असल रूप है उसे तो आपने कभी कंज्यूम ही नहीं किया आप जो खा रहे हैं जो बना रहे हैं वह तरीका गलत है । उसमें डाले जाने वाले इंग्रेडिएंट्स जो आते हैं वह अनहेल्दी हो सकते हैं लेकिन जो उसका मूल है वह तो वही है जो हमारी सेहत के लिए भी इतना हानिकारक नहीं है और स्वाद में भी वह वाकई में से बेहतर है। अगर पिज़्ज़ा की बात की जाए तो वह काफी ज्यादा हेल्दी है काफी पौष्टिक है हमारे लिए अगर उसे उसके असल तरीके से बनाया जाए और खाया जाए । अगर आप उसे देखेंगे तो वह मूल रूप से रोटी और सब्जी ही है यह जो माइग्रेशन आज हम देख रहे हैं फूड चेन में के जो चीज आज हमारे घर में बन रही है वह कहीं ना कहीं से इनफ्लुएंस होकर बन रही है उसी में हम रिवर्स माइग्रेशन करना चाहते हैं । इस चीज में स्टोरी टेलिंग भी बड़ा ही एसेंशियल पार्ट बन चुका है जैसे आपने एक बड़ा ही अच्छा शब्द उसे किया था कि हर चीज अब "ट्रेंड" बनती जा रही है तो फिर क्यों नहीं उस ट्रेड का ही फायदा उठा लिया जाए। अल्टीमेटली आपका एजेंडा जो पॉजिटिव एजेंडा है वह पूरा होना चाहिए। ऐसी चीज हैं उसके जो इंग्रेडिएंट्स हैं जैसा कि आपने कहा कि उन्हें सेंट्रलाइज करने में बड़ी परेशानी आती है क्योंकि उसे कोई उगा नहीं रहा या लोगों तक वह चीज पहुँच नहीं पा रही है तो उसका भी हमारी काइंडनेस मिल के अंदर हमारा यह सोच है कि हर एक एक चीज तक पहुँच जाए कह सकते हैं ना कि अगर हम सोशल मीडिया की भाषा में बात करें तो उसे कुल बना देना सही होता है। और स्टोरी टेलिंग के जरिए उनका यह बताना कि यह न्यूट्रिशस है इसमें फायदा है। कुछ टाइम पहले ही हम बातचीत कर रहे थे हमारे शहर से तो जो एक मेनू है इंडियन उसमें एक category बन चुकी है अल्टरनेट इंडियन ब्रेड अब यह चीज क्या है यह है आपकी बाजरे की रोटी ज्वार की रोटी, मक्के की रोटी मुझे काफी ज्यादा हास्यास्पद बात लगती है कि हम इसे अल्टरनेट क्यों कह रहे हैं। मैं आपको एक उदाहरण देती हूँ कि पास के ही गाँव में मीरासी समाज है उनके यहाँ जो रोटी बनती है , वह बारह महीने सोगरा ही खाते हैं बहुत से ऐसे लोगों से मिली हूँ जिन्होंने आज तक कभी गेहूँ की रोटी खाई ही नहीं फिर अल्टरनेट कैसे हो सकता है ये mainstream food chain हुई न। इसी तरह से अगर हम खेती की बात करें एकेडमिकली जिसे हम रासायनिक खेती कहते हैं उसे कहते हैं ट्रेडिशनल या कन्वेंशनल एग्रीकल्चर बताइए यह किस तरीके से ट्रेडिशनल एग्रीकल्चर हुआ और यह चीज कोई ज्यादा पुरानी नहीं है इसमें अगर बदलाव आया है तो पिछले दो-तीन दशक में ही बदलाव हुआ है। किस तरीके से अपने कल्चर अपनी आइडेंटिटी और अपने खाने को किस तरीके से देख रहे हैं उसे पर सवाल करना बहुत जरूरी हो चुका है क्या हम उसे एक अल्टरनेटिव की तरह देख रहे हैं या एक शॉर्ट लीव ट्रेंड बना दिया गया है।
अरमान: अगर हम भारतीय उपमहाद्वीप की बात करते हैं तो सभी के पास अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं अगर हम पौष्टिक आहार की बात कर रहे हैं अगर हम एक शहर में हैं उसमें भी अलग-अलग हिस्सों में उसके अलग-अलग मतलब है एक बड़ा हिस्सा है जिसे स्ट्रीट फूड या फास्ट फूड के अंदर पोषण नजर नहीं आता दवा लिए है कि आपकी नजर में पौष्टिक आहार क्या है या फिर क्या होना चाहिए जिसे हम अपने दिनचर्या का हिस्सा बन सकते हैं? छोटे-छोटे बदलावों के साथ हम उसे और ज्यादा पौष्टिक किस तरीके से बना सकते हैं।
दीपाली: जैसा कि आपने कहा कि सभी की परिभाषाएं अलग-अलग हैं हम दिन भर में जो भी कहते हैं वह पर्सनल इकोनॉमिकल और ज्योग्राफिकल चॉइस है आप जहाँ हैं आपके पास जो साधन है उस हिसाब से आपका खाना डिफाइन होता है और यह चीज सोचा काफी जरूरी है खासकर की इंडिया के कांटेक्स्ट से क्योंकि हम खाने को काफी मोरालिटी से जोड़ते हैं। उदाहरण के तौर पर स्ट्रीट फूड ज्यादातर लोग के लिए अनहेल्दी फूड है या फिर अगर हम आम बोलचाल की भाषा में कहें कि हम उसके साथ नहीं जाते क्योंकि वह अनहेल्दी डाइट कंज्यूम करता है और हमें भी फोर्स करता है खाने के लिए स्ट्रीट फूड और फास्ट फूड के लिए। और अगर हम यहाँ शहरी इलाकों में अगर बात करें तो वह आपसे बातचीत में इस्तेमाल करते हैं क्या तुम अभी डेयरी के प्रोडक्ट्स यूज करते हो और जब कोई व्यक्ति इस तरह की बात करता है तो उसे सामने वाले का पहला तो समझना चाहिए कि वह किस परिवेश से आता है अगर आप स्ट्रीट फूड में भी देखोगे तो आजकल हिंदुस्तान में मेयोनेज नाम की एक चीज बहुत इस्तेमाल की जाती है और यहाँ जब हम उस इस्तेमाल करते हैं तो वह दरअसल एक फैट है लेकिन वह उसका मूल नहीं जिससे उसे बनाया जाता था और जो यहाँ इस्तेमाल किया जाता है जिस तरीके से वह बड़ा ही खराब क्वालिटी का फैट होता है और अगर हम सीधे तौर पर इंडियन चाट की बात करें तो वह काफी हेल्दी होती है वह भी तो स्ट्रीट फूड ही है। और अगर हम राजस्थान के स्ट्रीट फूड की बात करते हैं तो दाल मोठ एक बड़ा ही अच्छा कॉम्बिनेशन बन करके आता है। और तो मैं तो यह भी कहूँगी कि जो पानी पताशा है वह भी बड़ा ही हेल्दी होता है कि अब सवाल फिर वही है क्या आप उसे बनाते किस तरीके से हैं और आप जिस जगह खड़े होकर उसे खा रहे हैं वह कैसी है। और सबसे बड़ी जो चीज मुझे लगती है जो हमें ध्यान में रखनी चाहिए वह होती है सीजनेलिटी हेल्दी न्यूट्रिशस खाना सभी के लिए एक जैसा नहीं हो सकता और यह बात अलग-अलग शहरों की अलग-अलग इलाकों की नहीं अगर आमने-सामने के पड़ोसी भी हैं तब भी उनके लिए वह डाइट अलग हो सकती है और उनके फैमिली बैकग्राउंड पर डिपेंड करेगी। और दूसरी के रीजनल उस सीजन में आपके पास में क्या चीज आ रही है अभी हम जयपुर में देख रहे हैं कि लोगों ने लगातार रागी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और हमें तो पता भी नहीं था यह होता क्या है तो हमारा कभी बनता ही नहीं था पिछले दिनों मेरा भतीजा आया था वह इस बारे में बात करता है क्योंकि उनके घर में बनते थे रागी पैनकेक और उसने मुझे कहा कि मुझे रागी पैनकेक खाने हैं हमने कहा क्या कहते हैं उसे मैंने उसे कहा मुझे चीला बनाना आता है। तो कहने का मतलब यह है कि वह हेल्थ के नाम पर भी अपना कॉन्टेक्स्ट नहीं देखा जा रहा है। यहाँ अगर राजस्थान में भी हमारे पास जो है जवाहर है बाजरा है लेकिन हम क्या खा रहे हैं रागी और वह उगती ही इंडिया के किसी और बेल्ट में है और क्योंकि वह इतनी दूर से यहाँ आता है तो ना तो आपको उसके बारे में कुछ पता है और ना आपको वह बनाना आता है उसे तरीके से जैसे वह असल में बनना चाहिए। तो बात असल में यही आता है कि इस तरह के सवाल करने काफी जरूरी हो जाते हैं क्योंकि धीरे-धीरे ग्राउंड से ही जब हम इस तरह के क्वेश्चनिंग करते हैं तब हम जाकर असल में एक हेल्दी डाइट की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं। क्योंकि एक बात यह भी है कि जो पैकेट में सामान आपको दिया जा रहा है जिसकी मार्केटिंग की जा रही है बहुत बड़े लेवल पर जब आप उसे बनाते हो उसे पैकेट के समान से तो जाहिर तौर पर वह इतना हेल्दी नहीं होता जो कि आपके आसपास में उग रहा हो जो आप जिससे आप परिचित हो और आपको वह खाना और बनाना दोनों आता हो वह आपके लिए हेल्दी होगा। मैं आपको एक और किस्सा बताना चाहूँगी कि हम महाराष्ट्र में गए वहाँ की एक ट्राईबल बेल्ट उस तरफ हम एक डॉक्यूमेंटेशन कर रहे थे और वहाँ छोटे-छोटे 10 - 12 साल के बच्चे वहाँ उन बच्चों को न सिर्फ 40 से 50 सब्जियों के नाम पता है बल्कि आईडेंटिफाई करना आता है उन्हें उनकी पहचान है और वह बच्चे आपको जंगल में लेकर जाएँगे और तोड़ के आपको दे रहे हैं और उसके बारे में बता रहे हैं इसके बाद में मुझे भी एक आदत हुई कि जब मैं रनिंग के लिए यहाँ सेंट्रल पार्क में जाती हूँ और वहाँ काफी सारे पेड़ हैं और मुझे धीरे-धीरे यह मालूम हुआ कि वहाँ काफी पत्ते हैं जिन्हें खा भी सकते हो। लेकिन क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि हमारे आसपास ऐसी चीज भी उग रही है जिन्हें हम आसानी से खा सकते हैं साफ करके। फूड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन यू एन का एक रिपोर्ट है जिसमें यह बताया गया है कि 30000 से ज्यादा ऐसी प्लांट्स स्पीशीज हैं की साइंटिफिकली लोगों को उसके बारे में पता है कि उसे खाया जा सकता है मगर सिर्फ 12 ऐसी प्लांट है जिन्हें जिसमें 75% डाइट का हिस्सा बनाया जाता है अब आप सोचिए कि 30000 में से 12 कितना बड़ा डिफरेंस हमें देखने को मिलता है सीधे तौर पर ही और वह 12 .75% डाइट को इंपैक्ट करता है आपका 75% डाइट सिर्फ उन 12 स्पीशीज पर लायबल कर रहा है यह भी एक बड़ा सवाल है कि जब हमारे पास इतना सब कुछ है फिर भी हम वही गिनी चुनी हुई चीजों को क्यों खा रहे हैं। कहीं ना कहीं हम सबको इनिशिएटिव के तौर पर करना चाहिए आप बाहर जाइए और देखिए कि हम पहले क्या खाया करते थे हमारे घर परिवार में पहले क्या-क्या चीज बनाई जाती थी वह रेसिपीज क्या थी आपके दादा-दादी वह अपने बचपन में किस तरह की डाइट लिया करते थे और वह चीज अगर आज भी हमारे आसपास हैं तो हम उन्हें क्यों नहीं खा रहे हैं हम उनका इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे हैं।
अरमान: आपने एक तरह से साहित्यिक बात कही है और जो परेशानियाँ हमारे समाज में हैं उन पर भी आपने नजर रखी लेकिन मेरा सवाल यह है कि आप एक फूड रिसर्चर हैं आपकी खुद की खाने को लेकर दिनचर्या क्या है?
दीपाली: मैं बड़ी ही पारंपरिक और संयुक्त मारवाड़ी परिवार से हूँ इसलिए हमारे घर का अगर दिनचर्या बताई जाए तो वह एक आम मारवाड़ी की रहती है इस तरीके से होती है जो कि ज्यादातर मारवाड़ी वेजिटेरियन फूड रहता है और खास तौर पर घर में आपको बताऊँ यह काम करते-करते जो मेरी समझ बनी है उसमें कुछ चीजों में हमने घर में बदलाव लाने की कोशिश की है पहले हम एल्यूमीनियम और स्टील काफी यूज किया करते थे और फिर धीरे-धीरे समझ बनने लगी तो फिर हमारी दादी के पुराने बर्तन थे ब्रास के उसे वापस से इस्तेमाल करना शुरू किया लोहे के बर्तन जो बहुत पहले ही अंदर रख दिए गए थे उन्हें फिर से बाहर निकाला गया और उनका भी उसी तरीके से इस्तेमाल करने लगे हैं और यह भी बड़ी जरूरी चीज होती है कि समझने की कौन से खाने में आपको लकड़ी के चम्मच का इस्तेमाल करना है और कौन से खाने के अंदर आप मेटल के चम्मच इस्तेमाल कर सकते हैं। तो यह बड़े बदलाव घर में काफी ज्यादा अब देखने को मिल रहे हैं इसके अलावा अगर मैं बताऊँ तो हम ज्यादा स्पाइसी फूड कंज्यूम नहीं करते अगर मैं अपने परिवार की बात करूँ और मेरी बात करूँ तो क्योंकि अगर हम देखें तो एक ग्लोबल रिप्रेजेंटेशन भी है इंडियन फूड की कि वह काफी ज्यादा स्पाइसी होता है और स्पाइस में भी कहेंगे हॉट और राजस्थानी खाने के लिए तो यह चीज प्रसिद्ध भी है क्योंकि यहाँ मिर्ची बहुत ज्यादा क्वांटिटी में इस्तेमाल की जाती है लेकिन जब आप में इंटीरियर जाते हैं ना और आप खुद भी गए होंगे ढाणियों में वहाँ कोई गरम मसाला इस्तेमाल नहीं करता है वह ज्यादातर वही हल्दी मिर्ची धनिया यही सब कुछ चीज जो बड़ी ही चुनिंदा है उन्हें ही स्पाइस के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है तो यह जब पैटर्न्स हैं वह यहाँ चेंज हुए हैं हमारे घर में पहले हम भी गरम मसाला इस्तेमाल नहीं करते थे एक लंबे वक्त पहले और इसके अलावा जब मैं बाहर जाती हूँ तो साथ वालों की बात भी यही होती है कि जब खाने की बात आती है तो उनका कहना होता है कि यह तो बहुत ज्यादा हेल्दी ही खाएगा या यह वह पहले से ही मेरा मेन्यू डिसाइड कर लेते हैं लेकिन ऐसा नहीं है और जैसा कि मैं पहले भी कहा कि खाने में आप कौन से इंग्रेडिएंट्स इस्तेमाल कर रहे हो वह सबसे बड़ा फैक्टर बनकर आता है। और अब यहाँ बहुत से आपको ठेले नजर आ रहे होंगे जयपुर में और दिल्ली में भी के वह ₹100 में आपको पूरी एक थाली बना कर देते हैं तो आप वहाँ पर यह चीज का अंदाजा लगा सकते हैं कि उनकी क्वालिटी क्या रही होगी और वह आपको किस तरीके के पोषण दे रहे हैं। और वह कितनी फ्रेश है इन सब चीजों का अगर आप ध्यान रखते हैं तो मुझे नहीं लगता कि फास्ट फूड स्ट्रीट फूड जितना हम सोचते हैं या हमें बताया जाता है उतना वह खराब है अब आप उसका कौन सा फॉर्म खा रहे हो वह जंक है या नहीं यह भी आपको देखना पड़ेगा इन सब चीजों का मैं बहुत ज्यादा ध्यान रखती हूँ।
अरमान: आपने काफी खूबसूरत अनुभव भी बताए अपनी जिंदगी से जुड़े हुए और किस तरीके से उसमें परिवर्तन आया लेकिन अब तक का सबसे बेहतरीन अनुभव क्या रहा आपका क्योंकि आप लगातार स्थानीय लोगों से भी बातचीत करती हैं फूड रिसर्चर के तौर पर वह अनुभव जिसे सोचकर यह लगा कि जो काम कर रहे हैं काफी मजेदार है और शानदार भी।
दीपाली: मैं आपके बीकानेर में ही थी पिछले साल और बीकानेर के आसपास के काफी गाँव में हम गए थे और हम मानसून के वक्त बीकानेर की तरफ थे और मानसून एक ऐसा वक्त है जहाँ जिस वक्त में राजस्थान के अलग-अलग जगह पर खासकर की बीकानेर के आसपास काफी चीज होती है जैसे कि कुंभी है और भी सब्जियाँ हैं और इस डॉक्यूमेंट्री के लिए मैं काफी उत्साहित थी और उस वक्त मुझे बाजरे को डॉक्यूमेंट करना था कि बाजरे की रोटी और खीच और उसके अलावा में साथ में क्या चीज बनती है और किस तरीके से यह पूरा प्रोसेस रहता है क्योंकि यहाँ जयपुर बेल्ट में इतना बाजरा कंज्यूम नहीं किया जाता क्योंकि जितना मारवाड़ में होता है उतना दूसरी तरफ नहीं होता और वहाँ आपकी मीठी बाजरी भी उगती है इन सब चीजों के लिए मैं काफी एक्साइटेड थी मुझे तकरीबन तीन दिन लगे जिन कम्युनिटीज को हम डॉक्यूमेंट कर रहे थे और उस गाँव में स्पिनिंग का काम काफी ज्यादा होता है कतवारिया हुआ करती थी उनके साथ हम वहाँ बैठा करते थे और मुझे तीन दिन लगे उन्हें उस कंफर्ट जोन में लाने के लिए उन्हें सहज करने के लिए कि जब उन्होंने बाजरे के बारे में बात करना शुरू किया क्योंकि कहीं ना कहीं एक बैरियर तो होता ही है कि बाहर से आई है और इंग्लिश में बात कर रही है और इसने पैंट पहन रखी है तो वह फैक्टर बहुत सारे हो जाते हैं और खासकर कि आप जितना इंटीरियर में जाते हो और आखिर में मुझे जाकर एक अम्मा मिली तो उस वक्त वह मुझे रेसिपी लिखवा रही थी उनकी ग्रैंड डॉटर इन लॉ तो वह वहाँ साइड में इस घर में कपड़े धो रही थी तो वह बड़े ही गर्व के साथ में यह कहती हैं कि हम तो यह खा लेते हैं मगर हमने आज तक अपने बच्चों को यह नहीं खिलाया और वह यह बात कहते हुए काफी खुश थे। कहीं ना कहीं उनके कहने का भाव यह था कि हमने अपने बच्चों को उसे गरीबी से बचा लिया कि कम से कम उसे बाजरा तो खाना नहीं पड़ रहा है इतनी अब बुरी हालत नहीं है हमारी फिर से एक बार अगर मैं कहूँ तो यह एक ऐसा मोमेंट था मेरे लिए जो काफी रिफ्लेक्टिव था कि हम उस चीज को गरीबी से कैसे जोड़ रहे हैं हमारे उस खाने को और दूसरी चीज एक शाम को हम एक ढाणी में गए उनका नाम गीता जी है और वह हमें जो ले जा रहे थे मुकेश जी वह बताते हैं कि यह इस गाँव के गरीब परिवारों में से एक है और वह हमें बता रहे थे कि आप यहाँ देख पाएँगे कि गाँव के लोग असल ढंग से अपनी जिंदगी कैसे जीते हैं उनका रहन-सहन और खान-पान क्या है और वह गरीब परिवार देखिए उनकी ढाणी के गेट से उनके घर के मेन गेट तक पहुँचने में हमें तकरीबन एक किलोमीटर चलना पड़ा था वहाँ उनके पास में इतनी जमीन है और मेरे दिमाग में यही सवाल था यह कैसे गरीब हो सकते हैं । जिस रास्ते से हम जा रहे थे क्योंकि मानसून का वक्त था तो वह आसपास का इतना हरा भरा इलाका हो गया था क्योंकि वह खेत भी साथ में ही था तो उन्होंने एक काफी बड़ा रेन वाटर हार्वेस्टिंग बना रखा था। झोपड़ियां कुछ अंदर की तरफ अलग-अलग बना रखी हैं क्योंकि एक बड़ा सारा परिवार है पंखा वहाँ पर नहीं था लाइट कनेक्शन वहाँ नहीं था कनेक्शन के नाम पर वह बल्ब कुछ लटके हुए हैं बाहर की तरफ। और फिर धीरे-धीरे जब बात शुरू हुई तो वह हमें बाहर की तरफ घूमने ले गई तो हम वहाँ पर खुंबी ढूँढ़ रहे हैं । पास ही में लोहिया उग रहा था हमने वह काटा वहाँ पर वह लोग उस चीज की खेती भी नहीं कर रहे हैं यह सब अपने आप उग रहा है फिर उन्होंने एक बड़ी ही खूबसूरत बात कही कि "जांगल देश में खाने की कमी नहीं है देखने की नजर होनी चाहिए" बिल्कुल सही बात है और यह चीज तो हर जगह अप्लाई होती है फिर चाहे वह बीकानेर हो या फिर जयपुर हमारे आसपास बहुत कुछ उग रहा है बस वह नजर खत्म हो चुकी है उसे देखने की यह बड़ा ही एक खूबसूरत इंसिडेंट था और गीता जी के बारे में मैं बहुत सोचती हूँ।
अरमान - कॉलम शब्द संवाद हेतु कीमती समय देने हेतु आपका बहुत आभार ।
दीपाली - बहुत धन्यवाद ।
Sonal Ved
सोनल वेद
कॉलम शब्द संवाद हेतु भारतीय फूड लेखिका और संपादक सोनल वेद से अरमान नदीम की खास बातचीत ।
रेसिपीज़ के लिए, तो इन सब पर शोध करने के लिए साहित्य काफ़ी ज़रूरी भी है और इसे पढ़ना और समझना आज के वक्त में यूं भी आवश्यक हो गया है । साहित्य आपको उस वक्त के इतिहास के बारे में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समझाता है - सोनल
सोनल वेद एक भारतीय फ़ूड लेखिका और डिजिटल संपादक हैं, जिन्हें Harper’s Bazaar और The Guardian जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। उनकी प्रमुख कृतियों में कुकबुक “टिफिन”, जिसे The New York Times की “Must-Have Cookbooks” सूची में शामिल किया गया, और Amazon बेस्टसेलर “Whose Samosa Is It Anyway?” शामिल हैं। उन्होंने Vogue India में पहले फ़ूड संपादक के रूप में कार्य किया और वर्तमान में Harper’s Bazaar India, Cosmopolitan India और Brides Today के लिए समूह डिजिटल संपादक के रूप में कार्यरत हैं। वेद का लेखन भारतीय व्यंजनों की विविधता की खोज करता है, जिसमें क्षेत्रीय विशेषताएँ और स्ट्रीट फ़ूड शामिल हैं। उनके लेख Saveur, Food52 और Thrillist जैसी प्रमुख फ़ूड प्रकाशनों में प्रकाशित होते हैं।
- उन्होंने कई प्रशंसित कुकबुक्स लिखी हैं, जिनमें “टिफिन” और “Whose Samosa Is It Anyway?” प्रमुख हैं। ये किताबें भारतीय व्यंजनों और उनके पीछे की कहानियों पर केंद्रित हैंHarper’s Bazaar India, Cosmopolitan India और Brides Today के समूह डिजिटल संपादक के रूप में, वे इन प्रमुख प्रकाशनों के लिए डिजिटल सामग्री का संचालन और दिशा-निर्देश देती हैं। वेद ने Tastemade India के लिए कुकिंग शो भी होस्ट किए हैं, जिससे उन्होंने अपने भारतीय व्यंजन संबंधी ज्ञान को व्यापक दर्शकों तक पहुँचा वे एक सक्षम फ़ूड लेखक और संपादक हैं, जिन्हें भारतीय भोजन संस्कृति और इसके विकास की गहरी समझ है।
अरमान: मौजूदा वक्त में आप एक बड़ा नाम हैं, फिर चाहे वह कुक फ़ूड रेसिपी लेखक की बात हो या फिर इंटरव्यूज़ लेने की। आपकी शुरुआत किस तरीके से हुई?
सोनल: अगर मैं अपनी शुरुआत की बात करूँ तो मुझे शुरू से ही लिखना पसंद था। मैं पत्रकारिता में थी और एक अख़बार के लिए भी मैंने अपने शुरुआती दिनों में काम किया। अगर लिखने की बात की जाए तो मुझे खाने पर लिखना काफ़ी पसंद था। लगातार इस तरह के आर्टिकल लिखने के बाद मेरी एडिटर को भी यह चीज़ समझ आ गई और मैं भी महसूस कर चुकी थी कि मेरा रुचि क्षेत्र क्या है। इसी वजह से मैंने उस क्षेत्र में ही ज़्यादा सीखने की कोशिश की, ज़्यादा पढ़ने का प्रयास किया, उस पर ज़्यादा रिसर्च की, ज़्यादा इंटरव्यू किए। जैसे-जैसे मैं सीखती रही, मेरी दिलचस्पी भी उसमें बढ़ती रही और मेरी जानकारी भी उसमें बढ़ती रही। जब मेरी इच्छा हुई कि इस पर एक किताब लिखनी चाहिए, और क्योंकि खाना ही मेरा मुख्य विषय था, तो इसके बाद मैंने अपनी पहली किताब लिखी, जिसका नाम था "गुज्जू गोज़ गॉरमेट" (2016)। यह जगरनॉट पब्लिकेशंस से प्रकाशित हुई, जो कि भारत की पहली डिजिटल कुकबुक बनी। "गुज्जू गोज़ गॉरमेट" में 45 रेसिपीज़ थीं, जो हम अपने घर में बनाते थे और खाते थे। वे सभी शाकाहारी रेसिपीज़ थीं। वह एक छोटा सा प्रयोग था। उसके बाद मैंने अपनी दूसरी किताब "टिफिन" लिखी और उस किताब में 500 भारतीय रेसिपीज़ थीं। मेरी कोशिश यह रही कि हिंदुस्तान के हर राज्य से रेसिपीज़ को लिया जाए। यों तो एक से ज़्यादा ही थीं, मगर मेरा प्रयास रहा कि कम से कम एक रेसिपी तो उसमें शामिल की जाए। आंध्र, तेलंगाना अगर कभी जाना हुआ तो उसमें से भी अलग-अलग रेसिपीज़ को शामिल किया गया। जो राज्य पास में हैं, जिस तरह से पंजाब और हरियाणा, तो मैंने वहाँ देखा कि उनकी भी रेसिपीज़ बहुत ज़्यादा अलग थीं, उनके खाना बनाने का तरीक़ा बहुत ज़्यादा अलग था। और जो केंद्र शासित प्रदेश हैं, मैंने वहाँ की भी रेसिपीज़ को इकट्ठा किया। उसके बाद मैंने उस किताब में एक साथ इन सबको प्रकाशित किया। और यहाँ से फिर एक शुरुआत हुई। उसके बाद तीसरी किताब, चौथी और अभी मैंने अपनी पाँचवीं किताब लिखी है, और कोशिश है कि यह सिलसिला आगे भी यूँ ही चलता रहे।
अरमान: लोक साहित्य और पारंपरिक भोजन, उन्हें अगर हम एक साथ लेकर चलते हैं तो वह आपकी कल्पना में किस तरीके से लेखन में उतरता है?
सोनल: एक चीज़ है कि अगर हम किसी भी भोजन की रेसिपी समझना चाहते हैं, तो उस वक्त का साहित्य देखना ही पड़ेगा। जब मैंने अपनी किताब "हूज़ समोसा इज़ इट एनीवे" लिखी थी, वहाँ पर बहुत सारे संदर्भ दिए गए हैं, फिर चाहे वह जैन धर्म से संबंधित हों। जो संदर्भ महाभारत और रामायण में दिए गए हैं, जो भी खाना वहाँ उल्लिखित है, उसका शोध भी मैंने किया है और वह पूरा शोध मैंने अपनी किताब "हूज़ समोसा इज़ इट एनीवे" में डाला है, क्योंकि जब आप उसे पढ़ने की कोशिश करेंगे तो उस वक्त संदर्भ इतने ज़्यादा लिखे नहीं जाते थे और वह इतनी विस्तार से नहीं बताते थे कि हमने इस चीज़ को खाया है, यह चीज़ पसंद आई है।
मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूँगी। जो जातक कथाएँ हैं, जो बुद्ध के जीवन से जुड़ी कहानियाँ हैं, वहाँ जातक कथाओं में आपको बहुत खाने के संदर्भ मिलेंगे और ये सभी संदर्भ देखकर और पढ़ने के बाद आपको यह मालूम पड़ता है कि बुद्ध के वक्त में जो खाने की रेसिपी थी, उनके जो संदर्भ थे, और उस वक्त भारतीय क्षेत्र में क्या उपलब्ध था। यह सभी चीज़ जातक कथाओं में उल्लेखित की गई है। इसमें बहुत सारी दूसरी चीज़ें भी उल्लेखित हैं। बहुत सारे दूसरे समुद्री फल भी उल्लेखित हैं। उस वक्त की चीज़ों को जानने के लिए कि क्या उनके इस्तेमाल होते थे, रेसिपीज़ के लिए, तो इन सब पर शोध करने के लिए साहित्य काफ़ी ज़रूरी भी है और इसे पढ़ना और समझना आज के वक्त में यों भी आवश्यक हो गया है। और वह साहित्य आपको उस वक्त के इतिहास के बारे में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समझाता है।
अरमान: जिस तरीके से नई-नई चीज़ों का आविष्कार होता है खाने के अंदर और एक बिल्कुल ही नई रेसिपी बनाकर बाहर आती है, तो क्या आपको ऐसा लगता है कि 90 के दशक तक एक फ़ूड रेसिपी को विकसित करने की प्रक्रिया थी वह अब जाकर धीरे-धीरे कम हो रही है या फिर इसे सिर्फ़ एक फ़ैशन के तौर पर देखा जा रहा है या वाक़ई में इस पर गंभीरता से काम किया जा रहा है?
सोनल: मुझे लगता है काफ़ी ज़्यादा बदलाव आ रहे हैं। नए-नए सामग्री का इस्तेमाल कर रहे हैं अपनी रेसिपी के अंदर। अब वह किस तरीके से कर रहे हैं, यह उन पर निर्भर भी करता है और नए-नए सामग्री तो लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रयोग लगातार किए जा रहे हैं, मिसाल के तौर पर जापानी माचा मौजूदा वक्त में बहुत चलन में है। उसे तो कभी हमने इंडिया में खाया ही नहीं था क्योंकि कभी हम यहाँ पर उसे बनाते ही नहीं थे, लेकिन आज के वक्त में लोग उसे इस्तेमाल कर रहे हैं और लोग बना भी रहे हैं, बेच भी रहे हैं। मुझे तो लगता है कि अभी तो बहुत ज़्यादा तेज़ हो चुका है इन सब चीज़ों का: नई-नई रेसिपीज़ का परिचय आना, पकाना, उसे अपनी रेसिपी में इस्तेमाल करना और फिर उसे भूल जाना और आगे नई चीज़ों की तलाश करना, कुछ नया इस्तेमाल करना।
अरमान: एक थोड़ा सा अलग सवाल करना चाहूँगा क्योंकि खाने से आपको बहुत ज़्यादा लगाव है और अपने घर परिवार में हमने हमेशा यही सुना है कि जैसा मूड होता है वह स्वाद उसके खाने में आने लगता है। आप इसमें विश्वास रखती हैं?
सोनल: मैंने कभी इसके बारे में लिखा नहीं है लेकिन हाँ, यह हम भी जानते हैं और परिवार में हमने भी यह चीज़ सुनी है कि जिस मूड से आप किसी चीज़ की शुरुआत करते हैं, खाना बनाते हैं, तो कहीं न कहीं इसका एक असर उस पर भी दिखता है। लेकिन सच बताऊँ तो मैंने कभी व्यक्तिगत रूप से इसे अनुभव नहीं किया है, क्योंकि मेरा जैसा भी मूड हो, मुझे मेरा बनाया हुआ खाना अच्छा ही लगता है, क्योंकि मेरे लिए खाना बनाना एक थेरेपी है। बिल्कुल ऐसी चीज़ होती है। मैंने देखा है, उसको पढ़ा है लेकिन कभी उसके बारे में लिखा नहीं।
अरमान: एक चीज़ मैं और आपसे जानना चाहूँगा क्योंकि अगर हम एक चीज़ को अलग-अलग जगह से ऑर्डर करते हैं तो उनकी कीमतों में फ़र्क आता है। कीमत सामान की दी जाती है या उस शेफ़ की जो उसे बना रहा है बड़े प्यार से उसकी मेहनत की?
सोनल: मुझे लगता है कि यह एक संयोजन है। अगर हम कोई चीज़ खा रहे हैं तो हमें उसे पोषण देना ही चाहिए। अगर हम कोई चीज़ खा रहे हैं और उसने हमें पोषण नहीं दिया, पेट नहीं भरा तो फिर क्या मतलब है? वैल्यू फॉर मनी जिसे हम कहते हैं, वह होना चाहिए और क़ीमत तो मेरे विचार में जो शेफ़ की सोच प्रक्रिया है, उसका हुनर है, किसी चीज़ को बनाने में, उस चीज़ को भी नज़र में रखना चाहिए, उस सोच प्रक्रिया की उसने जो दिमाग लगाया है। मिसाल के तौर पर हम देख सकते हैं कि चॉकलेट और बेसिल, बेसिल कहा जाता है तुलसी को। अब चॉकलेट और तुलसी अपने आप में दोनों बिल्कुल ही अलग-अलग चीज़ें हैं लेकिन अगर उस चीज़ का किसी ने संयोजन करके आपको पेश किया है, तो वह अपने आप में उसका एक अलग हुनर है, जैसे उसकी आइसक्रीम बना दी, तो वह एक दिलचस्प सोच है। वह हर जगह आपको मुझे लगता है देखने को भी नहीं मिलेगा, जो नए-नए प्रयोग कई लोग अपने घर में भी करते हैं या फिर रेस्तराँ, बड़े जो अलग रेस्तराँ हैं, में हर बार कोशिश की जाती है कि एक नया प्रयोग किया जाए। और बिल्कुल अगर किसी ने अपना इतना दिमाग लगाया है तो उसकी कद्र होनी चाहिए।
अरमान: आपने ख़ुद कई इंटरव्यू लिए हैं, सेलिब्रेटी हों या राइटर हों, हर क्षेत्र के लोगों से आपने बात की है। सबसे ज़्यादा मज़ा किनसे बात करने में आता है?
सोनल: अगर मैं शख़्सियतों की बात करूँ तो वह कोई भी हो सकता है जिससे बात करने में मज़ा आए, जिनकी बातें दिलचस्प हों, कुछ सीखने को मिले, जो ख़ुद कुछ अपने से साझा करना चाहें, जो अपनी यात्रा के बारे में बताएँ, जिनकी यात्रा दिलचस्प हुई हो। मुझे इस तरह के लोगों से बात करना अच्छा लगता है, क्योंकि जब हम उनसे बात करते हैं तो काफ़ी कुछ सीखने को भी मिलता है और एक पत्रकार के तौर पर मैं यह भी कह सकती हूँ कि वह लोग जो ज़्यादा उद्धरण (कोट) देते हैं, पत्रकार के रूप में हमारे लिए वह ज़्यादा अच्छे इंटरव्यू होते हैं, जिनकी बातों को हम ज़्यादा उद्धृत कर सकें, बजाए इसके कि कुछ उबाऊ सा जवाब दे दिया। तो यह होना ज़रूरी है कि एक अच्छी ज़िंदगी, एक यात्रा उन्होंने अपनी ज़िंदगी में बिताई हो और फिर बाद में वह हमारे साथ उसे अच्छे से साझा कर सकें और उनसे हम सीख ले सकें और उसे लोगों तक पहुँचा सकें। तो इस तरह की चीज़ पाठकों के लिए भी बेहतर होती है।
अरमान: रेसिपी बुक के अलावा अगर हम साहित्य की बात करें तो किस तरह का साहित्य पढ़ना पसंद करती हैं और सुझाव दे सकती हैं?
सोनल: मैं बहुत ज़्यादा सामग्री पढ़ती हूँ और क्योंकि मेरा काम ही ऐसा है जहाँ पर मुझे पॉप कल्चर के बारे में बहुत ज़्यादा जानना पड़ता है, और क्योंकि सेलिब्रिटी की जो ख़बरें हैं, अगर कोई चीज़ वायरल हो गई है, फ़ैशन के अंदर कोई चीज़ चलन में आई है या वह वायरल हुई है, तो उस तरह की चीज़ों का ध्यान भी रखना पड़ता है कि किस चीज़ की ख़बर बनाई जा सकती है। तो ज़्यादातर मेरा इस तरह की चीज़ों में ज़्यादा काम रहा है, मेरा क्षेत्र यही रहा है और अभी भी यही है। तो इसके लिए मुझे इन सब चीज़ों को साथ में लेकर चलना है और दिलचस्पी भी इन्हीं सब चीज़ों में है। जैसे कि मैं आपको मिसाल के तौर पर बता सकती हूँ अभी जो फ़िल्म रिलीज़ हुई, "सैयारा", उस फ़िल्म की जो मार्केटिंग की जा रही है निर्माताओं के द्वारा, किस तरीके से इसकी मार्केटिंग की जा रही है, उसके वायरल होने के क्या बिंदु हैं, चीज़ों को लेकर वह लोकप्रिय हो रही है, लोगों का क्या नज़रिया है उस चीज़ को लेकर, उनका देखना भी ज़रूरी है। अब इन सब चीज़ों के ऊपर किस तरह की ख़बर होनी चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए। और इस तरह का जो बातचीत मैं अपनी टीम के साथ करती हूँ तो वह मुझे काफ़ी ज़्यादा दिलचस्प लगता है, समझने में कि कोई चीज़ वायरल किस तरह से होती है, उसकी पूरी यात्रा क्या है और वायरल होने के बाद उसका क्या होता है। तो यह सब चीज़ों में मुझे बहुत दिलचस्पी रहती है।
अरमान: आप एक पत्रकार के रूप में भी काम कर रही हैं और रेसिपी बुक्स भी लिखती हैं। तो कहीं न कहीं यह दोनों चीज़ें अगर हम देखें तो थोड़ी सी अलग होती हैं। यह एक साथ आपको कैसे आकर्षित करती हैं?
सोनल: अगर मैं घटना की बात करूँ तो यों है कि मैं जिस परिवार से आती हूँ, वहाँ खाने को बहुत ज़्यादा महत्व दिया जाता है। मैं एक गुजराती पारिवारिक पृष्ठभूमि से आती हूँ, तो इस वजह से शुरू से ही खाने को लेकर एक अलग तरह का नज़रिया रहा और एक अहमियत रही। गुजराती परिवार में खाने को लेकर बहुत प्रयोग किए जाते हैं। बचपन से ही मेरे आस-पास इन सब चीज़ों को मैंने देखा। रेस्तराँ जैसा खाना घर के अंदर बनना और उसे खाना हमारे लिए कोई नई बात नहीं थी। हमारे घर में वैसे ही अच्छा खाना बनता था, मैं कहूँगी कि बहुत ज़्यादा अच्छा बनता था, काफ़ी दिलचस्प बनता था, प्रयोग बहुत ज़्यादा होते थे। तो यह अपने आप में एक चीज़ है कि जब आप एक ऐसे माहौल से आते हैं तो उसी तरह की आपकी दिलचस्पियाँ बढ़ती हैं, उन चीज़ों में आपका इंटरेस्ट बनता है और फिर आप धीरे-धीरे काम भी उसी क्षेत्र में करते हैं, इस इलाक़े के अंदर आप अपना काम करते हैं। और उसके बाद में जब आपको लिखना आ जाए, उस चीज़ को एक संरचना देना आ जाए, उसे रूप में डालना आ जाए, उस पूरे घटनाक्रम की एक कहानी बनानी आ जाए, अगर आपके पास में उसे थीम देने की कला आ जाए, जो कि आपको पत्रकारिता के स्कूल में भी सिखाई जाती है, तो आप इन सबको मिलकर एक किताब लिख सकते हैं। तो मुझे लगता है कि मेरी यात्रा उस तरह से हुई है।
और अगर मैं अपनी बात कहूँ, मेरे लिए जो सबसे ज़्यादा कोई चीज़ ज़रूरी है, तो वह है कि हमारे देश का युवा है, रेसिपी संरक्षण में दिलचस्पी के साथ काम करे। मेरे बहुत सारे दोस्त हैं जो कहती हैं कि "तू मेरी मम्मी से उनकी रेसिपी सीख ले," क्योंकि वह कहती हैं कि "मुझे यह चीज़ अच्छी नहीं लगेगी कि वह रेसिपी हमारी इतिहास से चली जाए, हमारे परिवार के एक इतिहास में से वह रेसिपी ख़त्म हो जाए।" आपको एक उदाहरण देता हूँ। मेरी एक दोस्त है गुजरात से ही, वहाँ एक रेसिपी होती है, एक चीज़ है "गोल पापड़ी।" चीज़ एक ही है लेकिन हर घर में अलग तरीके से बनती है। उसे गेहूँ के आटे से बनाया जाता है, घी बहुत ज़्यादा रहता है उसमें। हर घर में उसे अलग तरीके से बनाया जाता है। मेरी जो दोस्त है, वह चाहती है कि वह उसे हमेशा खा सके, हमेशा एक तरीके से कह सकते हैं ना कि वह रेसिपी को संरक्षित करके रख सके। अब किसी न किसी को तो वह चीज़ सीखनी पड़ेगी, तभी हम उसका इस्तेमाल आगे तक कर सकते हैं, क्योंकि अगर वह एक समय तक ही रही और आगे न उसे सिखाया गया और न वह सीखने का एक दिलचस्पी का स्तर रहा, तो वह वहीं तक आकर ख़त्म हो जाएगी या फिर किसी भी तरह का उसका दस्तावेज़ीकरण नहीं हुआ। और अगर मैं भारतीय दृष्टिकोण से कहूँ तो हमारे यहाँ इतनी सारी बारीक़ियाँ होती हैं तो वह कहीं न कहीं, किसी न किसी तरीके से उसका दस्तावेज़ीकरण होना ज़रूरी है, किसी न किसी को तो उसे लिखना ही पड़ेगा। मैं ऐसा सोचती हूँ कि यह मेरी ज़िम्मेदारी है, जितना हो सके उन रेसिपीज़ के बारे में कुकबुक लिखूँ और उन्हें संरक्षित रखूँ। तो मुझे लगता है कि यह ज़िम्मेदारी है और कहीं न कहीं यह हम सभी की ज़िम्मेदारी है।
अरमान: आपको अब तक कितनी रेसिपीज़ आती हैं?
सोनल: सच बताऊँ तो गिनना बहुत ही ज़्यादा मुश्किल है। अगर मैं अपनी एक किताब की बात करूँ तो उसमें 500 रेसिपीज़ हैं और एक दूसरी किताब जो मैंने लिखी उसमें तक़रीबन 300 रेसिपीज़ हैं, फिर दूसरी जो है उसमें इसी तरीके से 400 से ज़्यादा हैं। तो मुझे लगता है कि 1000 से ज़्यादा रेसिपीज़ मैं जानती हूँ। यह सब भारतीय रेसिपीज़ हैं और एक किताब मैंने लिखी थी इंडियन स्ट्रीट फ़ूड और चाट के ऊपर जो कि स्ट्रीट फ़ूड है इंडिया में, अलग-अलग राज्यों से, अलग-अलग जगह से जो चाट है, वह हर जगह आपको अलग-अलग मिलेगी। कोलकाता है, लखनऊ है, आगरा है, मुंबई है, कि वहाँ किस तरह के स्ट्रीट फ़ूड हैं, किस तरह की चाट वहाँ पर इस्तेमाल की जाती है, इन सभी को लेकर मैंने किताब लिखी थी और क्योंकि जैसा मैंने आपको बताया भी कि बहुत ज़्यादा ज़रूरी है इन सब चीज़ों को संरक्षित रखना, वरना धीरे-धीरे आने वाले वक्त में सब कुछ पास्ता और चाउमीन ही बन जाएगा।
अरमान: एक लिहाज़ से पश्चिम की नज़र से पास्ता भी स्ट्रीट फ़ूड ही है उनका।
सोनल: बिल्कुल है और हर लिहाज़ से हम प्रभावित हो ही रहे हैं पश्चिम से। पहले यहाँ कोई इतना पास्ता नहीं खाता था, अब तो हर कोई पास्ता खाता है, आपको रास्ते में मिल जाएगा। और अगर हम पिज़्ज़ा की बात करते हैं तो वह भी इतना चलन में नहीं था, इंडिया में इतना उसे खाया नहीं जाता था लेकिन आज के वक्त में वह बहुत ही ज़्यादा बड़ा हो चुका है, आपको हर रेस्तराँ में पिज़्ज़ा मिलेगा, बल्कि एक अलग-अलग विविधता के साथ में आपको वह मिलेगा। और यह मुझे लगता है कि आख़िरी 15 से 20 सालों के अंदर तो सबसे ज़्यादा तेज़ी के साथ में मेन्यू में शामिल हुआ है।
अरमान - कॉलम शब्द संवाद हेतु कीमती समय देने हेतु आपका बहुत आभार ।
सोनल - जी बहुत धन्यवाद
Maheshwari Chouhan
महेश्वरी चौहान
किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में महिला स्कीट शूटिंग में व्यक्तिगत पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला महेश्वरी चौहान से कॉलम शब्द संवाद हेतु अरमान नदीम की खास बातचीत ।
मुझे लगता है कि इंप्रूवमेंट का स्कोप तो जिंदगी में हमेशा रहता ही है - महेश्वरी चौहान
परिचय - महेश्वरी चौहान
महेश्वरी चौहान ने स्कीट शूटिंग में प्रारंभिक कोचिंग राष्ट्रीय कोच विक्रम सिंह चोपड़ा के मार्गदर्शन में प्राप्त की ।
उन्होंने 2012 से अभ्यास शुरू किया और 2013 में प्रतिस्पर्धा शुरू की। उनके व्यक्तिगत कोच में अमरदीप राय, राष्ट्रीय कोच में एनिओ फाल्को और रिक्कार्दो फिलिपेली शामिल हैं ।
2017 एशियन चैंपियनशिप, अस्ताना: महिलाएं स्कीट में कांस्य पदक जीता—पहली भारतीय महिला sket shooter जिसने यह उपलब्धि हासिल की ।
ओलंपिक क्वालीफायर, दोहा (2024): सिल्वर जीतकर पेरिस 2024 का ओलंपिक कोटा हासिल किया—इसे भारत का 21वां शूटर कोटा माना गया ।
• पेरिस ओलिंपिक्स 2024:
• व्यक्तिगत (women’s skeet): 14वीं स्थिति (स्कोर 118) ।
• मिश्रित टीम (mixed skeet) में अनंतजीत सिंह नारुका के साथ 4वां स्थान—ब्रॉन्ज एक बिंदु से छूट गया (43–44) ।
ISSF विश्व कप, विश्व चैम्पियनशिप में भी उन्होंने देश का प्रतिनिधित्व किया; वर्तमान विश्व रैंकिंग स्कीट महिलाओं में लगभग 15वीं है
महेश्वरी चौहान किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में महिला स्कीट में व्यक्तिगत पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। उन्होंने कज़ाकिस्तान के अस्ताना में आयोजित 7वीं एशियाई चैंपियनशिप शॉटगन के पाँचवें दिन कांस्य पदक जीता।
अरमान :- विश्व पटल पर अपने भारत का नाम रोशन किया लेकिन पहला सवाल मेरा यही रहेगा कि खेल जगत में आपकी शुरुआत कैसे हुई?
महेश्वरी :- अगर मैं बात करूँ तो बिल्कुल अपनी पूरी मेहनत की है लेकिन यह खेल भारत में इतना पॉपुलर मौजूदा इस वक्त नहीं है और अगर मैं बात करूँ तो मेरे घर से मेरे दादाजी और पिताजी दोनों ही नेशनल लेवल पर खेला करते थे। और यही वजह थी कि बचपन से ही मेरे आस-पास का माहौल रहा। और मैंने 14 साल की उम्र से यह खेल खेलना शुरू किया और शुरुआती दिनों में जैसा कि एक नए खिलाड़ी के लिए होता ही है जूनियर टीम में मुझे शामिल किया गया और धीरे-धीरे जब इस खेल के बारे में जानकारी बढ़ी और उम्र बढ़ी फिर 17 साल की उम्र में मुझे सीनियर टीम में शामिल किया गया। और क्योंकि इस खेल को सिखाने में और इसके तकनीकी मामलों को जानने में आमतौर पर बाकी खेलों से ज्यादा वक्त लगता है। और एक्सेसिबिलिटी और एक बेस बनाना जहां रेगुलर रोजाना प्रैक्टिस की जा सके। और उसके बाद में जैसे-जैसे मैं इस खेल को और गहराई से जाना और खुद भी कुछ अपनी तरफ से करने की कोशिश की और मेरे कोच, मेरे पिताजी, मेरे दादाजी सभी का सहयोग रहा और उसके बाद में मैंने फौरन कोच से भी इस खेल के बारे में कुछ बातें जानी तो लगभग आज दस साल हो चुके हैं । मेरे इस प्रोफेशनल सफर को। और आज का वक्त हम जब देख रहे हैं कि भारत में दूसरे अन्य खेलों पर भी ध्यान दिया जा रहा है और उनके खिलाड़ियों को अच्छी सुविधाओं का एक माहौल दिया जा रहा है जहां वह बेहतर ढंग से प्रैक्टिस कर सकें और देश के लिए अपना योगदान दे सकें। जैसा कि मैंने बताया कि एक काफी लंबा समय हो गया है लेकिन फिर भी आने वाले दो ओलंपिक तक मेहनत रहेगी और कोशिश भी।
अरमान :- जैसा कि आपने खुद ने भी बताया कि शूटिंग इतनी ज्यादा पॉपुलर नहीं है या फिर दूसरे हम ओलंपिक गेम्स की बात भी करें सिर्फ भारत की ही अगर हम बात करते हैं। क्योंकि यह बात सच भी है क्योंकि एक वक्त था जब सिर्फ क्रिकेट को ही माना जाता था कि एक खेल है और लोग इसे देखना पसंद करते थे। सवाल यह रहेगा कि अगर बाकी खेलों को बेसिक एजुकेशन के साथ शामिल किया जाए इस पर आप किस तरह से सुझाव देना चाहेंगे?
महेश्वरी :- मैं मानती हूँ कि सिर्फ आज वक्त में क्रिकेट ही हमारा डोमिनेंट स्पोर्ट्स नहीं है और हम लगातार यह देख रहे हैं कि पिछले कुछ सालों में ही बहुत ज्यादा बदलाव हो रहा है। दूसरे खेल की बात भी करें या फिर शूटिंग, राइफल शूटिंग और बैडमिंटन जैसे जो खेल हैं हाई परफॉर्मिंग ओलंपिक गेम हैं आज के वक्त इंडिया में और जितनी भी लीग हिंदुस्तान में शुरू हुई हैं फिर चाहे वह खो-खो से लेकर कबड्डी फिर अगर हम देखते हैं रेसलिंग, फुटबॉल तो इन सबको देखने के बाद फिर चाहे इनके खिलाड़ी हों या फिर इनके दर्शक हिंदुस्तान में स्पोर्ट्स का नेचर बहुत ज्यादा बढ़ा है। हम यह भी जानते हैं कि शुरुआत से हम उन देशों में नहीं थे जो स्पोर्ट्स पर इतना ज्यादा ध्यान दे रहे थे। हम इस नजरिए से भी देखते हैं तो इंप्रूवमेंट काफी अच्छी हुई है। और अब तो कंपलसरी कर दिया गया है स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया की तरफ से सभी स्पोर्ट्स में न्यूट्रिशनिस्ट, साइकोलॉजिस्ट, एथलीट्स के मेंटल हेल्थ को देखने के लिए प्रोफेशनल तौर पर भी काम किया जा रहा है। मुझे लगता है कि जो पहला कदम जो सबसे ज्यादा जरूरी होता है वह हमने ले लिया है। और काफी समय लगता है अगर आपको कुछ सुविधाएं मिल भी रही हैं और उन सुविधाओं में खुद को समझकर आगे बढ़ने में समय लगता है और मुझे लगता है कि आने वाले एक-दो ओलंपिक में वह भारत में जरूर देखने को मिलेगा जो प्रगति है और जो बदलाव है लगातार जिस तरीके से हमारे एथलीट्स काम कर रहे हैं तो यह हमें बहुत जल्द इसमें बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। पार्टिसिपेशन, क्वालिफिकेशन, स्पोर्ट्स इवेंट सभी बहुत ज्यादा बेहतर हो चुके हैं। मेरा तो यही मानना है कि ग्रास रूट से जो एक सपोर्ट फैमिली का रहता है, कम्युनिटी सोसाइटी का जो यंग बच्चों पर मुझे लगता है वह सपोर्ट होना बहुत ज्यादा जरूरी है। मैं कहूँगी कि आज फैसिलिटीज़ हैं मगर फैमिली का सपोर्ट होता है जो बिल्कुल ही बेस लेवल पर होता है । जिस वक्त आपके पास में कोई स्पॉन्सर नहीं है जिस वक्त आप किसी टीम का हिस्सा नहीं होते हैं जिस वक्त सिर्फ आप खेल को सीखने की शुरुआत कर रहे होते हैं । जिस वक्त जो आपका परिवार है आपको हौसला दे सकता है वह सबसे ज्यादा जरूरी है मेरी नजर में। और उस पर फोकस करना भी काफी ज्यादा जरूरी है। क्योंकि पेरेंट्स भी कई बार इन चीजों को लेकर डर जाते हैं कि अगर इन चीजों में कमाई ज्यादा न हुई तो स्पोर्ट्स की कोई गारंटी नहीं होती है । फाइनेंशियली कोई सिक्योरिटी नहीं है। वह जो एक मानसिकता बनी हुई है कि खेल कोई हॉबी नहीं है एक प्रोफेशन है। मुझे लगता है इस पर बातचीत भी काफी ज्यादा जरूरी है जैसे ही इसकी डिमांड और परफॉर्मेंस बढ़ेगी तो मैं यकीन से कह सकती हूँ कि फैसिलिटीज़ भी इसके साथ-साथ बढ़ेंगी। आज मैंने अपनी आँखों के सामने दस साल में इतना फर्क देखा है। आज हमारे देश में इतनी सारी रिक्वायरमेंट हैं गरीबी या बेहतर स्वास्थ्य, इंफ्रास्ट्रक्चर और इन सब चीजों में स्पोर्ट्स एक छोटा क्षेत्र रह जाता है। मुझे लगता है कि ग्रास रूट पर इन सब चीजों की चर्चा बहुत ज्यादा जरूरी है। क्योंकि बहुत वक्त लगता है कि एथलीट को मैच्योर होने में, परिपक्व होने में और इसलिए लोग 4-5 साल के बाद में गिवअप कर देते हैं और 10 से 14 साल तो एवरेज टाइम होता है ओलंपिक के लेवल तक पहुंचने का। एक प्रोफेशनल एथलीट की कैटेगरी में आने के लिए।
अरमान :- जैसा कि आपने खुद बताया कि 10 से 15 साल आपको हो चुके हैं और आपने इस खेल को बहुत गहराई से देखा है। एक खिलाड़ी के रूप में आपको समाज प्रति क्या भूमिका महसूस होती है? और आज आप खुद को मौजूदा वक्त में कितने मोर्चों पर खड़ा हुआ पाती हैं?
महेश्वरी :- मुझे लगता है कि भारत बहुत ही ज्यादा सेल्फ रिफ्लेक्टिंग होते हैं क्योंकि टेक्निकल लेवल के बाद में सभी खेल बहुत ज्यादा मेंटल हो जाते हैं। और इसी वजह से खेल काफी दिलचस्प रहता है जैसे-जैसे आप बदलते हो उसके साथ आपकी सोच और आपका खेल भी बदलता है। बिल्कुल मैं इस खेल को बचपन से देखा है और आज मैं इस खेल की खिलाड़ी हूँ। मेरे परिवार ने इसको लेकर मुझे बहुत समर्थन किया है ।और हमेशा मेरे साथ खड़े रहे। मेरे कुछ हासिल करने से पहले भी उन लोगों का समर्थन हमेशा मेरे साथ रहा। मैं राजस्थान के एक बहुत छोटे से गाँव से आती हूँ ।और बहुत ज्यादा समर्थन मेरे परिवार और जैसा मैंने बताया कि आसपास के लोगों से मिला। और हमेशा से एक आइडियल के रूप में कुछ चाहिए होता है जिन्हें हम जस्टिफाई कर सकें जिस पर हम बाद में कह सकें कि अगर इन्होंने यह बात की है या काम किया है तो हम भी कर सकते हैं। और मुझे लगता है यह बहुत अच्छी बात भी है क्योंकि अगर मैं अपने गाँव की बात करूँ जहां आसपास के जो बच्चे हैं स्कूल में पढ़ने वाले मैंने देखा है कि शहरों में जाकर राइफल शूटिंग करते हैं क्योंकि शॉटगन अगर देखें तो वह बहुत ज्यादा एक्सपेंसिव हो जाता है। गगन नारायण, अभिनव बिंद्रा इनके मेडल के बाद शूटिंग की जो ग्रोथ हुई है। और जैसा कि मैंने बताया कि यह एक इंडिविजुअल गेम है और इसमें लगातार हमें ग्रोथ देखने को मिल रही है और मेरा भी एक यही लक्ष्य है कि अपने इस खेल के लिए एक लेगेसी रखनी है। क्योंकि राइफल पिस्टल में बहुत अचीवमेंट है मगर शॉट गन में एक जैसा खेल नहीं हो जाता तो जितना मैं अपनी कोशिश के साथ अचीव कर सकूँ तो फिर लोगों को मेरे आस-पास के जो नए बच्चे हैं उन्हें भी यह लगेगा कि हम भी यह काम कर सकते हैं। मैं पहली महिला थी ओलंपिक में जिसने भारत की तरफ से खेल में हिस्सा लिया लेकिन अब मैं यह कह सकती हूँ कि हर ओलंपिक गेम में महिलाएं होंगी। क्योंकि बस एक बार वह ग्लास सीलिंग ब्रेक हो जाए उसके बाद में एक्सेसिबिलिटी बढ़ जाती है, रीच बढ़ जाती है, अचीवमेंट के लेवल बढ़ जाते हैं।
अरमान :- आपने अपनी बात में अकादमिक फैसिलिटीज़ की बात की जो कि आज के वक्त में धीरे-धीरे काफी ज्यादा इंप्रूव हो रही हैं जो स्पोर्ट्स पर्सनैलिटीज़ हैं उन्हें काफी सुविधा दी जाती है लेकिन क्या मौजूदा वक्त में आपको और किन्हीं बदलाव की स्पोर्ट्स अकादमी में जरूरत महसूस होती है?
महेश्वरी :- मुझे लगता है कि इंप्रूवमेंट का स्कोप तो जिंदगी में हमेशा रहता ही है फिर चाहे वह एथलीट हो या फिर इंफ्रास्ट्रक्चर की बात करें जो उन्हें मुहैया कराया जा रहा है। बिल्कुल और ज्यादा प्रोफेशनलिज्म की जरूरत हो सकती है और ज्यादा अनुशासन अगर एथलीट से स्पोर्ट्समैनशिप एक्सपेक्टेड है फिर जो सपोर्टिंग स्टाफ है जो सपोर्ट से रिलेटेड है मुझे लगता है उनसे भी वह लेवल ऑफ प्रोफेशनलिज्म एक्सपेक्टेड होना चाहिए। दूसरी बाकी चीजों में जिस तरह से सरकार काम करती है मुझे लगता है उस तरीके से सरकार स्पोर्ट्स पर काम नहीं करती। तो बिल्कुल यह सब चीज इनमें शामिल की जा सकती है बेहतर डाइट एथलीट्स के लिए की जा सकती है जो ट्रेनिंग के अंदर अभी है जो गवर्नमेंट हॉस्टल्स के अंदर अभी अपनी ट्रेनिंग कर रहे हैं जहाँ पर भी काफी ज्यादा इंप्रूवमेंट की जरूरत महसूस होती है। और मुझे लगता है यह एक चेन की तरह है जहां सब लोग एक दूसरे पर निर्भर करते हैं जहां वह कुछ एक दूसरे के साथ मिलकर बाहर कर सकें। जहाँ एक भी लिंक मिस हो जाए तो वहाँ आउटकम सेम नहीं होता है। और अगर मैं इसे दूसरे नजरिए से भी देखूँ जैसा हम रहा है कि लगातार काम भी किया जा रहा है और सरकार भी अपने बजट में स्पोर्ट्स के बजट को इनक्रीस कर रही है तो मुझे लगता है यह काफी जरूरी है और फिर जहाँ हम अपने बजट को भी इसके ऊपर बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकते हैं। स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया में जितने भी ऑफिशल्स हैं तो मैं यह कहना चाहूँगी कि उसमें कम से कम 30% से लेकर और भविष्य में 50 परसेंट तक रिटायर्ड एथलीट्स होने चाहिए। तो मुझे लगता है कि इन सब चीजों में कहीं बार मिसकम्युनिकेशन हो सकता है लेकिन अगर एक रिटायर्ड एथलीट वहाँ होंगे तो वह बेहतर ढंग से उस चीज को समझ भी पाएंगे और बदलाव की गति भी तेज होगी। मुझे लगता है इन सब चीजों के ऊपर ध्यान अगर दिया जाए तो काफी बेहतर होगा।
अरमान :- आपके सुझाव वाकई में सराहनीय हैं फिर चाहे वह सरकार के किए गए काम का विश्लेषण करते हुए उनसे सही ढंग से माँग करना और स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया से की गई माँग थी बहुत जायज है। खेल के अलावा में लिटरेचर या फिर भारत लिटरेचर को आप किस तरीके से देखती हैं।
महेश्वरी :- मैं टेनिस और गोल्फ को बहुत ज्यादा फॉलो करती हूँ क्योंकि उनका जो मेंटल प्रिपरेशन है वह बहुत सिमिलर है मेरे गेम से और मुझे लगता है कि वह ज्यादा पॉपुलर भी हुए हैं। इस वजह से उन पर बहुत बेहतरीन साहित्य भी आपको मिल जाएगा, हाई परफॉर्मिंग एथलीट्स के आपको बेहतरीन इंटरव्यूज भी मिलेंगे। मुझे लगता है कि जो मेरा गेम है शूटिंग उसमें इतना ज्यादा डाटा हमारे पास में पब्लिक प्लेटफार्म में उपलब्ध नहीं है। तो मैं ज्यादातर टेनिस और गोल्फ को ही पढ़ना पसंद करती हूँ और ज्यादा नॉलेज के लिए। और मुझे लगता है उससे कहीं न कहीं मेरा जो गेम है वह भी इंप्रूव होता है। एक शानदार किताब है 30 सेकंड गर्ल्स स्विंग और मुझे लगता है कि जो भी एथलीट इंडिविजुअल गेम के अंदर है उसे यह किताब पढ़नी चाहिए। और इसे पढ़ना और जो इसकी शैली है वह काफी आसान है जिसे कोई भी एज ग्रुप का व्यक्ति पढ़ सकता है। जिससे एक बेहतर समझ मिल सकती है। एथलीट्स की ऑटोबायोग्राफी आप पढ़ सकते हैं। मैं ओ जी क्यू फाउंडेशन से जुड़ी हुई हूँ जो कि एक बहुत ही बेहतरीन फाउंडेशन है जिससे और भी बहुत सारे एथलीट्स जुड़े हुए हैं जिसमें एक कन्वर्सेशन बेहतरीन चर्चाएं होती हैं जिसमें अलग-अलग स्पोर्ट्स प्लेयर से बातचीत की जाती है। जहाँ मैंने वेटलिफ्टर मीराबाई चानू से बात की, उनका जो स्ट्रगल रहा, उनकी जो जिंदगी है। मैं यह कह सकती हूँ कि इस तरह का आपसी संवाद काफी जरूरी है जिससे हम एक दूसरे को समझ सकें, एक दूसरे के तौर तरीकों को जान सकें।
अरमान नदीम - कॉलम शब्द संवाद हेतु कीमती समय देने हेतु आपका बहुत आभार ।
माहेश्वरी - आपका भी बहुत बहुत आभार ।
Anish Gwande
अनीश गवांडे
विदेशी विश्विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त युवा साहित्यकार, शोधकर्ता, और राजनेता के रूप में भूमिका निभाने वाले अनीश गवांडे से कॉलम शब्द संवाद हेतु अरमान नदीम की खास बातचीत। ।
हम ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जहाँ इंसान की, पार्टी की, विचारधारा रही ही नहीं है। - अनीश गवांडे
अनीश गवांडे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। वे पार्टी की प्रगतिशील नीतियों और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
• सह-संस्थापक, पिंक लिस्ट इंडिया:
यह भारत का पहला अभिलेख (archive) है, जिसमें एलजीबीटी+ अधिकारों के समर्थन में खड़े होने वाले राजनेताओं का रिकॉर्ड रखा जाता है। इस पहल में गवांडे अग्रणी भूमिका निभाते हैं और समानता एवं समावेशन के मुद्दों पर लगातार चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।
• दारा शिकोह फ़ेलोशिप:
गवांडे इस अंतर-विषयक कला आवासीय कार्यक्रम (interdisciplinary arts residency) का संचालन करते हैं, जो जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में आयोजित होता है।
• रोड्स स्कॉलर:
उन्हें प्रतिष्ठित Rhodes India Scholarship से सम्मानित किया गया है और उन्होंने University of Oxford से M.Phil. in Intellectual History की पढ़ाई की है।
शैक्षणिक पृष्ठभूमि और रुचियाँ
• कोलंबिया विश्वविद्यालय से स्नातक:
2018 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से Comparative Literature and Society में बी.ए. किया। यहां उन्होंने दक्षिण एशिया और फ्रैंकोफोन पश्चिम अफ्रीका में कानून, साहित्य और राजनीति के अंतर्संबंध (intersection) पर अध्ययन किया।
सक्रियता और राजनीतिक आकांक्षाएँ
• LGBTQ+ अधिकारों की वकालत:
वे भारतीय राजनीति में क्वीयर प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और आशा रखते हैं कि आने वाले पाँच वर्षों में कोई क्वीयर व्यक्ति संसद या विधानमंडल में निर्वाचित होगा
• लेखन :
उन्होंने प्रमुख प्रकाशनों के लिए लेख लिखे हैं, देश के बड़े साहित्यिक महोत्सवों में वक्ता के रूप में भाग लिया है, और प्रतिष्ठित कला दीर्घाओं में प्रदर्शनियों का क्यूरेशन किया है।
• मराठी में अनुवाद:
अपने अवकाश में वे मराठी कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हैं।
अरमान :- आपकी जो शुरुआत है, फिर चाहे वह एकेडमिक्स हो, आपका साहित्य में जिस तरह की दिलचस्पी है और उसके बाद में अगर हम देखते हैं, मौजूदा वक्त में आप राष्ट्रवादी कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में आज स्थापित हैं। अगर आप अपने पूरे सफर को गहराई से बताएं कि यह किस तरीके से शुरू हुआ?
अनीश:- मैं मुंबई में पला-बढ़ा और यहीं मेरी स्कूलिंग हुई। और अगर मैं अपनी शुरुआती स्कूल की बात करूँ तो मैं एक ऐसे स्कूल में भी पढ़ा हूँ, जहां एक क्लास में मात्र 20 से 25 विद्यार्थी हुआ करते थे, जिससे हम कहते हैं ना 'घर के सबसे जो नज़दीक स्कूल थी'। और उसके बाद मैं मुंबई की सबसे प्रसिद्ध स्कूल में भी पढ़ा, जहाँ उद्योगपति, राजनेताओं, कलाकारों के और बड़े नाम अगर हम कहें, उनके बच्चे भी वहाँ पढ़े। तो, मैंने दोनों चीजों का अनुभव किया। वहाँ पर मुझे आर्ट्स पढ़ने का मौका मिला, जबकि दसवीं में मेरे अंक काफी अच्छे आए थे और घरवालों ने कहा था कि साइंस क्यों नहीं पढ़ रहे हो? लेकिन मेरा फैसला था आर्ट्स लेकर लिटरेचर पढ़ना, सोशियोलॉजी पढ़ना। 12वीं तक मैं मुंबई में ही रहा। मैं थिएटर बहुत किया करता था। और राजनीति के अगर मैं बात करूँ तो स्कूल से ही इसमें रुचि शुरू हो चुकी थी क्योंकि पापा और मैं हर शाम न्यूज़ देखा करते थे। और वह 2012 से 2014 का समय था, जिस वक्त मोदी जी राष्ट्रीय मंच पर प्रकट हो गए थे। और वह समय यह भी था कि जब पापा अर्णब गोस्वामी को देखना चाहते थे और मैं बरखा दत्त जी को सुनना चाहता था। रिमोट पर झगड़ा होते-होते राजनीति में रुचि बढ़ने लगी। मैंने एक फैसला यह भी कर लिया था कि एक वॉलंटियर के तौर पर मैं मिलिंद देवड़ा जी के साथ काम करूँगा। 2014 में मेरा यह सफर शुरू हो गया। मैं दरवाजे खटखटा रहा था, 17 साल की उम्र में। इसके बाद मैं कोलंबिया यूनिवर्सिटी गया। वहाँ पर मैं लिटरेचर पढ़ रहा था। वहाँ मैं बहुत कुछ सीखा और पढ़ा क्योंकि मैंने यह भी सोचा कि अगर विदेश जा रहे हैं तो वहाँ के बारे में जानना चाहिए। फ्रेंच लैंग्वेज सीखी। उसके बाद मैं वेस्ट अफ्रीका में सेनेगल में गया और उनके पहले प्रेसिडेंट लियोपोल्ड सेडर सेनघोर की तुलना मैं सिर्फ नेहरू जी से कर सकता हूँ क्योंकि दोनों ही साहित्यिक क्षेत्र से राजनीति में उतरे थे। उन्हीं पर मैंने अपना थीसिस भी लिखा। ग्रेजुएशन के कुछ दिनों पहले ही मुझे मिलिंद जी ने कॉल किया और कहा, “क्या वापस आओगे और मेरे कैंपेन में शामिल होंगे?” और जैसे ही मेरी ग्रेजुएशन पूरी हुई, उसके दो दिन बाद ही मैं मुंबई आ चुका था। और इस वक्त 2019 की चुनाव की तैयारी 18 में चल रही थी और उस वक्त मैं महाराष्ट्र कांग्रेस के साथ काम कर रहा था। कह सकते हैं कि सीधे तौर पर मैंने उस वक्त राजनीति में काम करना शुरू किया। काफी ग्राउंड लेवल से अगर मैं कहूँ तो मैंने काम शुरू किया और लोगों को जोड़ने का, विचारधारा के साथ जोड़ने का काम किया। लेकिन जैसा आप भी जानते हैं कि हम 2019 का चुनाव हार गए। उसके बाद मुझसे भी सवाल पूछे जाने लगे, “अमेरिका छोड़कर तो आप यहाँ आए हो?” उस दिन से मैं सुशिक्षित बेरोजगार बन गया। राजनीति में आने के बाद प्राइवेट सेक्टर में आपको लोग कम ही काम देते हैं। उस वक्त यह और ज़्यादा मुश्किल हो गया क्योंकि अगर आप किसी भी तरह का राजनीतिक ओपीनियन रखते हैं तो कहा जाता है कि आपको नौकरी नहीं मिलेगी। उसके बाद मैंने स्कॉलरशिप के लिए प्रयास किया और सौभाग्य से मुझे रोड्स स्कॉलरशिप मिल गई। मुझे फंडिंग मिली ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में जाने के लिए। 2020 से 22 में ऑक्सफोर्ड चला गया, लेकिन इससे पहले जब हम कोविड काल में थे, तब वहाँ हमने फंड रेज़िंग की शुरुआत की। तकरीबन तीन-साढ़े तीन करोड़ का हमने फंड जुटाया और लोगों की मदद की। और ऑक्सफोर्ड जाने के बाद भी यह काम जारी रहा। बाद में ख्याल आया कि हिंदुस्तान वापस लौट जाएँ। मैं दिल्ली आया क्योंकि राजनीति में अगर आपको कुछ सीखना है तो दिल्ली आना आपको अनिवार्य हो जाता है। और अब जब हम दिल्ली में हैं, तो एक पद भी मिल गया है, राष्ट्रवादी कांग्रेस में राष्ट्रीय प्रवक्ता का।
अरमान :- आपने इनिशियल स्टेज पर कांग्रेस का जिक्र किया कि शुरुआती दिनों में आप कांग्रेस के साथ थे और मुझे लगता है राजनीति में जब कोई नौजवान आता है जो संघ के विचारधारा में नहीं जाना चाहता, उसकी पहली पसंद कांग्रेस रहती है लेकिन युवा कांग्रेस के साथ में टिक क्यों नहीं पा रहा है? आपका खुद का भी इसका अनुभव है, इसे आप कैसे देखते हैं?
अनीश:- कांग्रेस पार्टी के साथ हमारा पुराना नाता रहा है और आज भी हम कांग्रेस विचारधारा वाली पार्टी में ही हैं। हमारे साथ एक विचित्र स्थिति आ गई थी। मेरे मैंटर और मित्र मिलिंद देवड़ा जी कांग्रेस छोड़ गए, तो कांग्रेस पार्टी में हमें गाइडेंस देने वाले कोई रहे नहीं। राजनीति में पार्टी बड़ी ही महत्वपूर्ण होती है। विचारधारा बहुत महत्वपूर्ण होती है। राजनीति में इंसान सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसमें देखा जाता है कि आप किसके साथ काम कर रहे हैं, आप किसके साथ जुड़े हुए हैं। यह देखना बहुत महत्वपूर्ण होता है। एक पीपल्स प्रोफेशन है। अगर आप किसी के साथ कनेक्ट नहीं हो पाए तो आप राजनीति में टिक नहीं पाओगे। मिलिंद जी एकनाथ शिंदे वाले शिवसेना में चले गए और उन्होंने हमसे पूछा कि क्या आप शिवसेना में आएँगे? उस वक्त मैंने कहा था, “वैचारिक स्तर पर मैं वहाँ नहीं आ सकता।” विचारधारा छोड़कर मैं इस वक्त शिवसेना-एकनाथ शिंदे जी के साथ नहीं आ सकता। और उसके बाद में सुप्रिया ताई से मिला। पहले कॉन्फ्रेंस में मिला था, इससे पहले हमारा किसी भी स्तर पर मिलना नहीं था। वह मुझे जानते थे लेकिन एक कोलंबिया और एक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट के तौर पर। जब उनसे मुलाकात हुई तो लोकसभा चुनाव से पहले एनसीपी (शरदचंद्र पवार) में उन्होंने मुझे पार्टी के लिए काम करने का अवसर दिया। उस चुनाव में हम 10 में से 8 लोकसभा सीट जीत गए। राजनीति में पता नहीं चलता कब कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं और लोगों को यह मालूम नहीं पड़ता कि हम राजनीति में उतरे तो उतरे कैसे। अगर आपका कोई गॉडफादर ना हो, अगर आपके पास राजनीतिक पहचान ना हो, परिवार वाले राजनीति में ना हो, इस परिस्थिति में बहुत मुश्किल हो जाता है। सबसे बड़ा सवाल व्यक्ति के सामने रहता है कि शुरुआत कहाँ से हो। शुरुआत मुझे मिलिंद जी के साथ मिला, इसके लिए मैं शुक्रगुजार हूँ। उसके बाद जब आप राजनीति में खरे उतरते हो, खुद की एक पहचान तैयार करते हो। पार्टी में फूट हुई तो वह मुश्किल समय था पार्टी के लिए। यह होता ही है कि जब आप किसी की मदद उनके मुश्किल समय में करते हैं, तो वह अच्छे समय में आपकी मदद करते हैं।
अरमान :- आपने एक बहुत अच्छी बात कही कि राजनीति में विचारधारा महत्वपूर्ण होती है और उसी तरीके से इंसान भी महत्वपूर्ण होता है। मैं लगातार युवा नेताओं से बात करता रहता हूँ लेकिन एक स्तर पर यह भी मालूम पड़ता है कि एक वक्त में ही दो अलग-अलग विचारधाराओं के साथ में हमारे युवा जुड़े हैं और उनके लिए वह काम भी कर रहे हैं। तो अब यहाँ तो विचारधारा एक दूर कहीं बस्ते में नज़र आती है, इसे आप कैसे देखते हैं?
अनीश:- देखिए, आज स्थिति गंभीर है। मैंने 2014 में ही एक आर्टिकल लिखा था "डेथ ऑफ़ आईडियोलॉजी" (विचारधारा की मौत)। हम ऐसे वक्त से गुज़र रहे हैं जहाँ इंसान की, पार्टी की, विचारधारा रही ही नहीं है। तो, आज इस दौर में हमें विचारधारा का फिर से निर्माण करना होगा। जब तक हम उस विचारधारा का निर्माण नहीं कर पाते, फिर दूसरों को कहना कि आप सिर्फ इलेक्शन के वक्त नज़र आते हो और विचारधारा को थाम नहीं रहे हो, यह कहना भी गलत है। हमने अपनी राजनीतिक कल्पना शक्ति को सीमित रखा है। हमने वही मुद्दे इतने रगड़-रगड़ के बोले हैं कि अब कोई हमारी विचारधारा में भी विश्वास नहीं करता। अब आत्म-चिंतन बहुत जरूरी है। फिर चाहे वह कोई भी विचारधारा की पार्टी हो, अगर उसके मानने वाले यह खुद से आत्म-चिंतन नहीं करते कि और लोग हमारी विचारधारा को क्यों नहीं मान रहे, तब तक वह विचारधारा बढ़ नहीं सकती। आप कभी भी किसी पर भी विचारधारा को थोप नहीं सकते। और अगर हम कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी आज विचारधारा देश पर थोप रही है, हम यह भी मान सकते हैं कि हम अपनी विचारधारा को लोगों तक पहुँचाने में असमर्थ रहे और इस विचारधारा को जीवित रखने में असफल रहे। आज हमारे सामने जो चुनौती है वह सिर्फ चुनाव जीतने की नहीं है। चुनाव आते-जाते रहेंगे, नेता आते-जाते रहेंगे, लोगों को टोपी लगाते रहेंगे। अगर आपको विचारधारा को जीवित रखना है तो एक राजनीतिक कल्पना शक्ति का होना बहुत जरूरी है और उसे बढ़ाना होगा। आज हम महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचारधारा के आधार पर आवाज़ नहीं उठाते। आज का जो युग सोशल मीडिया और AI का है, अगर हम बात करें तो फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियाँ वह सिर्फ आपकी प्राइवेसी नहीं, बल्कि आपकी पहचान भी छीन रही है। आप जो डेटा चैट जीपीटी में डालते हो, AI में डालते हो, वह चीज़ सीख कर AI आपको ही रिप्लेस कर सकता है। अभी यह देखना बहुत जरूरी है कि इन नए मुद्दों पर जो कि लोगों के मुद्दे हैं और इन सबको लेकर हम अपनी विचारधारा को सामने रखते हुए एक नई अप्रोच कैसे पेश कर सकते हैं। हमने महाराष्ट्र में इसका प्रयास किया था। सर्वाइकल कैंसर की वैक्सीन है, वह सरकार के द्वारा बहुत से वादों के बावजूद लोगों तक नहीं पहुँची है। हम महिला सम्मान की बात करते हैं, सुरक्षा की बात करते हैं लेकिन जो सर्वाइकल कैंसर वैक्सीन है जो सरकार दे सकती है... हम पुराने मुद्दों पर अटके हुए हैं। आप कोई भी भाषण उठाकर देख लीजिए, चाहे वह 70 के दशक से हो और आज के वक्त में दिया गया हो, उसमें आपको कोई फर्क नज़र नहीं आएगा। नई समस्याओं के लिए हमें नए समाधान चाहिए।
अरमान :- आप पिकल इंडिया के संपादक हैं और राजनीति में मुखर रहते हैं। सवाल है कि क्यूर कम्युनिटी का जो पॉलिटिकल अब्सेंस है, इसे आप कैसे देखते हैं?
अनीश:- इस देश में अगर कोई भी सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन शुरू हुआ है, तो वह धीरे-धीरे शुरू हुई है। फिर चाहे वह दलित अधिकारों के लिए आंदोलन शुरू हुआ था, वह हज़ारों साल पहले शुरू हुई थी। उसमें अगर हम देखें भक्ति रस के जो कवि हैं, तुकाराम जी हो या रविदास हो, फिर कबीर हो, उस भक्ति मूवमेंट से लेकर जातिवाद के खिलाफ जो एक आंदोलन शुरू हुआ है, वह आज तक चलता आ रहा है। आप अगर धर्म के नाम पर जो अन्याय होते हैं, इसके खिलाफ हम आवाज़ उठा रहे हैं, उसका अगर हम इतिहास पढ़ें, वह ब्रिटिश राज के दौरान डिवाइड एंड रूल पॉलिसी के दौरान लाया गया था, जिसमें हिंदू और मुसलमान को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना और उन्हें अलग रखना। और उस वक्त जब लोगों ने आवाज़ उठाई थी और अगर हम वह इतिहास पढ़ते हैं, तो हम समझ पाएँगे कि आज हम जो इस हिंदुत्ववाद के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, हम जो आज माइनॉरिटी के खिलाफ होते जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं, उसका इतिहास भी 100 से ज़्यादा सालों तक पीछे चला जाता है। और वही जब हम एलजीबीटी का मुद्दा देखते हैं, बाबा साहब अंबेडकर ने जब वह एक वकील थे, तब आर.डी. कर्वे ने “समाज स्वास्थ्य” नामक एक पत्रिका प्रकाशित की थी जो 1927 से 1953 तक चली। इस पत्रिका में, उन्होंने यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, और सामाजिक सुधारों के बारे में लिखा। और बाबा साहब अंबेडकर ने कोर्ट में आर.डी. कर्वे को डिफेंड किया था क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि उनकी मैगज़ीन में सेक्स एजुकेशन और होमोसेक्सुअलिटी के बारे में एक प्रोग्रेसिव विचारधारा के तहत लोगों को बताया जा रहा था। जब कोई और उनके लिए खड़ा होने के लिए तैयार नहीं था, बाबा साहब अंबेडकर थे जो उनके लिए खड़े हुए। नामदेव ढसाळ जो दलित पैंथर के हेड थे, उन्होंने 90 के दशक में ट्रांसजेंडर के साथ और सेक्स वर्कर्स के साथ एक मोर्चा निकाला था, शरद पवार जी के घर तक। उन्होंने एलजीबीटी अधिकारों के बारे में बात की। समाज में एलजीबीटी के मुद्दे राजनीति में आए हैं लेकिन जिस गति से आने चाहिए थे, वह गति नहीं मिली है। एक वक्त आया था जब हमारे देश में ट्रांसजेंडर महिलाएँ चुनाव लड़कर जीत कर आ रही थी। कमला जान जी कॉरपोरेटर बनी थी, शबनम मौसी बानो ने इतिहास रचा था जब वह विधायक बनी थी मध्य प्रदेश में। सुप्रीम कोर्ट का नालसा जजमेंट अगर आप देखेंगे 2014 का, सेक्शन 377 का अगर हम जजमेंट देखें, आपको यह समझ आएगा कि यह जजमेंट 5-10 सालों में नहीं आते। इन ऐतिहासिक फैसलों के पीछे 100 साल लग जाते हैं। अभी महान शख्सियत जिनका योगदान इन सब में रहा, इन सभी का काम आगे बढ़ाता है पिकल इंडिया।
अरमान :- राजनीतिक दल हमेशा कोशिश करते हैं कि उनके स्पोक पर्सन की हैसियत से जब कोई व्यक्ति आए, वह इतना कौशल रखता हो कि अगर किसी चीज़ की नॉलेज ना भी हो, तब भी वह उस वक्त उस स्थिति को सहजता के साथ हैंडल कर ले। आपकी नज़र में एक राजनीतिक पार्टी का स्पोकपर्सन होना कितना मुश्किल हो सकता है?
अनीश:- मेरी नज़र में स्पोकपर्सन बनने का जो सवाल है, वह हर पक्ष में अलग-अलग होता है। हर राजनीतिक पक्ष में एक ऑफिशियल टाइटल होता है। उसके पीछे आपको बहुत सारी जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं। वह सभी के लिए अलग-अलग हो सकती हैं। अगर आप मेरा उदाहरण लें, मुझे पूरी इंग्लिश मीडिया रूम का इंचार्ज बनाया हुआ है। इस वजह से जिस भी तरह का अंग्रेजी मीडिया के साथ कोऑर्डिनेशन होता है, जिस भी तरह की प्रेस रिलीज़ जाती है ऑफिशियल पार्टी की तरफ से, सब मेरे पास से होकर निकलती है। जो भी अंग्रेजी में रिसर्च किया जाता है, वह मेरे पास होता है। स्पोकपर्सन का दर्जा किसी को तब दिया जाता है जब वह पार्टी के लिए बहुत काम कर रहा हो या और दीगर मोर्चे पर भी काम कर रहा हो। उसके बाद आपको सम्मान मिलता है पार्टी को रिप्रेज़ेंट करने का क्योंकि राजनीति में तो वक्ता सभी अच्छे होते हैं, लेकिन जिन वक्ताओं को पार्टी की पोजीशन पेश करने का मौका दिया जाता है, वह वही होते हैं जो पार्टी के लिए कुछ बढ़कर काम करते हैं।
अरमान :- राजनीति की जब हम बात करते हैं तो कयास नहीं लगाए जा सकते। कभी भी कुछ भी हो सकता है और अगर मैं महाराष्ट्र की बात करूँ तो यहाँ तो बिल्कुल भी कयास नहीं लगाए जा सकते। कब किस पार्टी का विभाजन हो जाए, कौन किसके साथ विलय हो जाए, इसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है। सीधा सवाल यही रहेगा, महाराष्ट्र की राजनीति इतनी अप्रत्याशित क्यों है?
अनीश:- जब मैंने राजनीति शुरू की थी तब मैं कांग्रेस पार्टी के साथ था। उस वक्त हम शिवसेना के खिलाफ थे। वक्त आगे बढ़ा और 2019 आया और हम शिवसेना के साथ गठबंधन में आ गए। और उस शिवसेना में बाद में फूट आ गई। राष्ट्रवादी में फूट आ गई, राष्ट्रवादी के दो भाग हो गए। 2019 में जो निर्णय लिया गया महा विकास अघाड़ी तैयार करने का, उसके बाद महाराष्ट्र की राजनीति के लैंडस्केप में बड़ा बदलाव देखने को मिला। मुझे लगता है उसे सेटल होने में थोड़ा वक्त लगेगा। क्योंकि जो विचारधाराएँ थीं, वह पूरी तरीके से बदल गई हैं। एक ऐसा सिस्टम बन चुका है जिनकी विचारधाराएँ एक नहीं हैं, वह पक्ष भी एक साथ आ रहे हैं और सत्ता में आ रहे हैं। अगर आप यह सब देखते हैं, तो हम निश्चित ही कह सकते हैं महाराष्ट्र में एक पॉलिटिकल टर्न हो रहा है। मुझे लगता है उसे 10 साल तो लगेंगे सेटल होने में और धीरे-धीरे हमें यह भी मालूम पड़ेगा कि इन छह राजनीतिक दलों में से कौन आगे रहेगा और कौन पिछड़ेगा। इस वक्त महाराष्ट्र की राजनीति में कह सकते हैं कि भूकंप आ चुका है। लेकिन अगर हम इसे दूसरे नज़रिए से देखें तो इसका एक जो फायदा सीधे तौर पर मिला है, तो वह युवा राजनेताओं को मिला है। अगर मैं पूरी ईमानदारी से कहूँ, यह स्प्लिट नहीं होता तो शायद मुझे नेशनल पार्टी में एक युवा को इतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिलती। यह जिम्मेदारी शायद मेरे सीनियर्स के पास होती। अगर मैं राष्ट्रवादी कांग्रेस की बात करूँ जिसमें मौजूदा वक्त में मैं प्रवक्ता हूँ, तो हमारी पार्टी से फहद अहमद को मौका मिला है। अगर राष्ट्रवादी में विभाजन नहीं होता तो वह नवाब मलिक के खिलाफ टिकट माँग भी नहीं सकते थे और मिलता भी नहीं। हमें यह भी देखना चाहिए कि जब एक बड़ा राजनीतिक शिफ्ट होता है एक राज्य में, इसका असर दो-तीन चुनाव तक तो रहता ही है।
अरमान :- मौजूदा वक्त में जिस तरह का सिनेरियो बना महाराष्ट्र में भाषा को लेकर, मराठी को लेकर, क्या महाराष्ट्र की राजनीतिक दल बहुत अधिक अग्रेसन के अंदर हैं क्योंकि अगर हम यह भी देखें तो वह सिर्फ अग्रेसन शिवसेना और उनका विभाजन को उसी में नज़र आता है? भाषा का मुद्दा महाराष्ट्र की राजनीति में बहुत बड़ा फैक्टर बन चुका है या फिर वह सिर्फ चंद राजनीतिक दलों और उन्हीं के कार्यकर्ताओं में अग्रेसन देखने को मिलता है? आप इसे कैसे देखते हैं?
अनीश:- यह देखिए कि कितने लोगों को पीटा गया है। यह भी देखिए कि वह लोग कहाँ हैं। फिर देखिए कि उन्हें पीटने वाले कौन हैं। इन सब को देखने के बाद में आपको पता चलेगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ हद तक गुंडागर्दी है। उत्तर प्रदेश जितनी नहीं है, बिहार जितनी नहीं है, लेकिन गुंडागर्दी है। जब कुणाल कामरा ने एकनाथ शिंदे जी के खिलाफ गाना बनाया था, जब हैबिटेट को भी तोड़ दिया गया था, वह तो एकनाथ शिंदे जी की शिवसेना ने तोड़ा था। प्रवीण गायकवाड की है। सोशल रिफॉर्मर है। पिछला भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अटैक ऑर्गेनाइज्ड किया था। जो कार्यकर्ता भड़ककर निर्णय लेते हैं, उससे हम पूरे राज्य का पॉलिटिकल लैंडस्केप नहीं समझ सकते, पूरे पक्ष की भूमिका नहीं समझ सकते। इस वक्त में उद्धव ठाकरे जी की पार्टी, राज ठाकरे जी की पार्टी के साथ अभी हमारे संबंध अच्छे हैं लेकिन हमने लगातार कहा है कि जो कोई भी मारपीट करेगी, उसे पुलिस को गिरफ्तार करना चाहिए, उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन आप यह भी देखिए कि भारतीय जनता पार्टी है और उनके जो एलायंस पार्टनर है, उन्हें यह मारपीट पसंद है, उनके लिए क्योंकि एक फेवरेट नैरेटिव तैयार करता है। मौजूदा वक्त में राज्य सरकार उनके नीचे है, म्युनिसिपैलिटी उनके नीचे है। वह कोई एक्शन लेना चाहते हैं तो लीजिए। अगर मौजूदा वक्त में मेरी भी पार्टी का कोई कार्यकर्ता ऐसा करे, अगर किसी के साथ मेरे कार्यकर्ता ने मारपीट की, ना ही पुलिस मेरे हाथ में है और ना ही प्रशासन मेरे हाथ में है, तो फिर मैं कर क्या सकूँगा? लेकिन मैं यह कर सकूँगा कि पार्टी के डिसिप्लिन गाइडेंस के हिसाब से उसे सजा दूँ, उनको डाँट सकूँगा। लेकिन अगर इससे ज़्यादा कोई एक्शन लेना हो तो फिर वह गवर्नमेंट को लेना चाहिए, पुलिस को लेना चाहिए। महाराष्ट्र में जो आज एक सवाल उठा है भाषा का, वह सिर्फ मराठी बोलने से बड़ा है। 700 पब्लिक लाइब्रेरियन बंद हुई है पिछले 5 साल में। मराठी थिएटर है, उनके लिए आज के वक्त फंडिंग नहीं है। मराठी कल्चर सेंटर के लिए फंडिंग नहीं है। मराठी स्कूल के लिए फंडिंग नहीं है। इस परिस्थिति में जिस राज्य सरकार को मराठी को बढ़ावा देना चाहिए, वो राज्य सरकार अपना काम नहीं कर रही है। इसके खिलाफ हम आवाज़ उठा रहे हैं।
अरमान - कॉलम शब्द संवाद हेतु कीमती समय देने हेतु आपका बहुत बहुत आभार ।
अनीश - धन्यवाद
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