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Sunday Column “शब्द संवाद”

Armaan Nadeem

Armaan Nadeem 

अरमान नदीम 


परिचय 

मात्र सोलह वर्ष की आयु में लघुकथा की किताब “सुकून” के लेखक अरमान नदीम भारत के सबसे कम उम्र के लघुकथाकार है जिनकी किताब प्रकाशित है तथा इनके नाम एक रिकॉर्ड यह भी दर्ज है कि आप बहुत कम उम्र में राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर , जवाहर लाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी जयपुर तथा राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर से एक साथ पुरस्कृत लेखक है ।  “शब्द संवाद” कॉलम हेतु देश की चुनिंदा शख्सियात से बातचीत 

Armaan Nadeem, based in Bikaner, Rajasthan, has surprised everyone with his writing talent and deep thinking at a very young age.


His writing journey started at the age of just 16. At that age, he wrote and published a collection of his short stories called "Sukoon". As soon as this book was published, he set a record and became the youngest short story writer of India. 


He received honors from three major literary institutions simultaneously. Thus, he became the youngest writer ever to achieve this feat. These institutions include Rajasthan Sahitya Academy, Jawaharlal Nehru Bal Sahitya Academy and Rajasthani Bhasha, Sahitya and Culture Academy.


Apart from this, he also received the Manuj Depavat Award for his story "Khokho Ni Hatsi". All these honors show how impressive his stories are and how much people appreciate his writing. He has also been awarded the Pandit J.N.B. Award. Sahitya Akademi Award and Rajasthan Sahitya Academy Pardesi Award.

dipali khandelwal

Dipali Khandelwal

दीपाली खंडेलवाल

कॉलम शब्द संवाद हेतु  फोर्ब्स 30 अंडर , 30 एशिया 2025 की सूची  में शामिल भारत  की सुप्रसिद्ध फूड रिसर्चर और स्टोरी टेलर  दीपाली खंडेलवाल से युवा साहित्यकार अरमान नदीम की खास बातचीत ।

  मेरे दिमाग में फिर वह सवाल आने लगे कि हम इन्हें क्यों ढक रहे हैं फिर चाहे वह हमारा पहनावा हो, हमारा खाना हो हम उसे गौरव के साथ  क्यों नहीं आगे बढ़ा रहे। - दीपाली खंडेलवाल 

दीपाली खंडेलवाल एक फूड रिसर्चर और स्टोरीटेलर हैं, जो भारत की समृद्ध धरोहर को भोजन के माध्यम से खोजती हैं। उन्होंने द काइंडनेस मील की स्थापना की, जो एक वैश्विक आंदोलन है, जिसका उद्देश्य भोजन को पहचान, गरिमा और पीढ़ीगत गर्व का स्रोत पुनः स्थापित करना है। आज जब पारंपरिक खाद्य ज्ञान विलुप्त होने की कगार पर है, टीकेएम इसे जमीनी शोध के माध्यम से संरक्षित करता है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी सीखने के जरिए शिक्षित करता है, और स्वदेशी खाद्य प्रणालियों का सम्मान करने वाली नीतियों के लिए वकालत करता है।

टीकेएम का मिशन तीन स्तंभों पर आधारित है — संरक्षण, शिक्षा और वकालत, ताकि खाद्य संस्कृति खो न जाए बल्कि पीढ़ियों तक आगे बढ़ती रहे। भारत की पाक धरोहर को सहेजने के उनके कार्य के लिए उन्हें फोर्ब्स 30 अंडर , 30 एशिया 2025 की सूची में शामिल किया गया।












deepali khandelwal
Interview 

अरमान: आपकी शुरुआत किस तरह हुई फूड रिसर्च में आपकी दिलचस्पी किस तरह बनी?

दीपाली: इस सब के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था यह एक इत्तेफाक कह सकते हैं । मैं जयपुर में ही पली-बड़ी हूँ। और उस वक्त जयपुर काफी छोटा लगता था और स्कूल टाइम में हमेशा ऐसा लगता था कि स्कूल खत्म करते ही शहर से भागना है ,कुछ बड़ा करना है और उसके बाद में मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी पढ़ने गई और वहाँ पर अलग माहौल मिला । और वह मेरे लिए पहली बार था कि मैं खुद से कहीं पर कुछ कर रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अब अपने आप को समझ रही हूँ। और मुझे यह भी एहसास हुआ कि यह जो एजुकेशन स्ट्रक्चर है इससे मैं खुद को जोड़ ही नहीं पा रही हूँ और इसके चलते मैंने अपना कोर्स भी बदला मैं इकोनॉमिक्स पढ़ रही थी और उसके बाद में मैं इंग्लिश लिटरेचर को चुना लेकिन उसके बाद में भी वह एक कमी जो थी वह भर नहीं पा रही थी। और कहीं ना कहीं वह जो वक्त था वह काफी दिलचस्प था और वहाँ क्योंकि आप हर एक चीज को क्वेश्चनिंग कर रहे हो पहली बार आप किसी एडल्ट के रूप में हर चीज को देख रहे हो। और उसमें भी वह सवाल यह था कि क्यों आखिर मुझे बाहर जाना था। इस तरह के सवाल लगातार मेरे सामने थे जो मैं खुद से कर रही थी। और इन्हीं सबके चलते मैं जयपुर वापस आई और जब मैं अपने शहर वापस आ चुकी हूँ तो एक यह भी चीज थी कि कुछ ना कुछ तो करना पड़ेगा। और एक कोर्स होता है एक्चुअरियल साइंस और मैंने वह भी पढ़ना शुरू किया साथ ही साथ जवाहर कला केंद्र मैं वहाँ जाकर बैठा करती थी और वहाँ मेरा काफी आर्टिस्ट से मिलना हुआ काफी सारे शोस अटेंड किए । और उनसे बात करते हुए मुझे एक यह भी एहसास हुआ कि जब आप एक यंग इंडिपेंडेंट आर्टिस्ट के रूप में काम शुरू करते हो आपके पास बहुत सारे कन्फ्यूशियस और प्रेशर होते हैं और उसकी सबसे बड़ी जो जड़ होती है वह होती है फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ना होना कि अब आपके पास में वह स्किल तो है लेकिन उसे आप मोनेटाइज कैसे करेंगे। और फैमिली बैकग्राउंड से हमारा परिवार हमेशा से ही बिजनेस रिलेटेड रहा। और हमने एक काम करने के लिए स्टूडियो का फाउंडेशन किया और उसके प्रोग्राम जयपुर में भी किया और बाहर भी काफी सारे इंडिपेंडेंस आर्टिस्ट के साथ में काम किया। और उसमें हमने काफी लोक कलाकारों के साथ भी काम किया । वहाँ से मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। मैं आपको एक किस्सा बताना चाहती हूँ गाँव जयपुर से 40 किलोमीटर से दूर है और हम वहाँ अक्सर जाया करते थे । सुबह जाते थे और पूरा दिन वहाँ स्पेंड किया करते थे और उस गाँव में 35 से 40 परिवार रहा करते थे और वह हर बार हमारे लिए खाना बनाने का टर्न लिया करते थे हर बार अलग-अलग लोगों के यहाँ हम खाना खाया करते थे और वह जब भी कुछ खाने के लिए बनाते थे तो वह काफी हैवी होता था और क्योंकि आप राजस्थान में हो इतनी गर्मी के अंदर इतना हैवी खाना क्योंकि वह बड़े ही प्यार से बनाते थे तो हम सब भी उसी प्यार से उसको खाया भी करते थे। वह बनाते भी थे तो चावल, खीर या फिर आलू की सब्जी और वह चीज बार बार हमें खाने को मिलती थी यह चीज मैंने भी सोची क्या यह खुद भी इतना चावल खाते हैं क्योंकि जयपुर में जहाँ मैं रहा करती थी मेरे घर में इतना चावल नहीं बनता था। और एक बार यूँ हुआ कि हम जून जुलाई की गर्मियों में गए और उन दिनों में मेरी तबीयत भी कुछ खराब थी हमने वहाँ अपना काम निपटाने के बाद में जब खाने बैठे तो फिर से वही आलू छोले की सब्जी और चावल । क्योंकि हम वहाँ काम कर रहे थे पर वहाँ यह सोचा भी आने लग गया कि हम यह सब क्या कर रहे हैं। जैसा कि मैं आपको बताया कि वह इतने प्यार से इतने सम्मान से वह खिलाते थे तो लेकिन मैं बार-बार समझा भी रही थी कि मुझे बहुत गर्मी लग रही है मैं यह चीज नहीं खा सकती और मेरी तबीयत सही नहीं है फिर वह उसके बाद ऑप्शंस देने लग जाते हैं क्या आपके लिए आइसक्रीम मंगवा देते हैं और अब तो गाँव में भी कोल्ड ड्रिंक का काफी  ट्रेंड है। इस वक्त क्या हुआ उनका बच्चा स्कूल से वापस आया और उन्होंने उसे दी छाछ-रोटी वह देखते हुए मुझे भी ख्वाहिश हुई के मुझे भी यही चाहिए और उन्होंने ऐसा दर्शाया किया कि उन्होंने मेरी बात को सुना ही नहीं और मैं थोड़ा जिद करते हुए उन्हें कहा कि मुझे यह दे दो मुझे यही खाना है तब उन्होंने कहा कि आपके लिए नहीं है या आपको अच्छा नहीं लगेगा । यह आपके लिए ताजा खाना बनाया है यह आप खाइए लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि यह चीज मुझे काफी पसंद है और घर में भी हम इस तरह से बची हुई रोटी और छाछ खाते हैं । लेकिन उनका क्या कहना था कि आप ताजा बना हुआ खाना खाइए इससे हो सकता है कि आपकी तबीयत और खराब हो जाए यह देहातियों का खाना है इस वक्त वह बच्चा वही आँगन में बैठकर खाना खा रहा था और जब उसने वह शब्द सुना वो रुक गया और वह उसे वक्त मुझे भी देख रहा है और अपनी माँ को भी देख रहा है। और उसकी आँखों से यह साफ झलक रहा था कि उसके मन में सवाल था कि क्या यह इतना खराब खाना है कि आप इन्हें नहीं दे सकती और वह मैं खा रहा हूँ। और जो उस वक्त उस लड़के का चेहरा था मैं कभी अपनी जिंदगी में वह अपने ज़हन से नहीं निकाल सकती। और वह एक पॉइंट ऐसा था कि मैं यह महसूस किया कि हम ऐसा क्यों सोचते हैं और वह एक क्लिक हुआ मेरे दिमाग में कि एक वक्त था कि जब मुझे भी जयपुर से जाना था और वह जो सवाल था वह खाने को लेकर नहीं था वह सवाल था कि ऐसा क्या हिस्सा है हमारे वजूद का कि हम उससे भागना चाहते हैं और इस तरीके से भागना चाहते हैं कि हम उसे ढलते रहते हैं दूसरों के सामने। और मेरे दिमाग में फिर वह सवाल आने लगे कि हम इन्हें क्यों ढक रहे हैं फिर चाहे वह हमारा पहनावा हो हमारा खाना हो हम उसे गौरव के साथ में क्यों नहीं आगे बढ़ा रहे।

अरमान: आपने अपनी बात में बड़ी ही खूबसूरती से गाँव के खाने की बात की और जब हम शहरों की बात करते हैं पारंपरिक भोजन खाया तो जा रहा है लेकिन उसे आज हम एक ट्रेंड की तरह फॉलो कर रहे हैं कि जब हम किसी रेस्टोरेंट में जाते हैं तब हम कहते हैं कि राजस्थानी थाली चाहिए जो चीज हमारे घर में ही बन रही थी उसे हम रेस्टोरेंट में जाकर बड़े चाव से कहते हैं सिर्फ एक ट्रेंड का हिस्सा बनने के लिए और एक बात यह जिस हद तक उसे कंज्यूम करना चाहिए था वह नहीं हो पा रहा है इसके ऊपर आपकी क्या राय है?

दीपाली: आपने बड़ी ही दिलचस्प बात कही, हम काफी सारे  रेस्टोरेंट के साथ में काम कर रहे हैं और हमारा विचार भी है कि सिर्फ पारंपरिक भोजन ही नहीं उनके बनाने का तरीका और जो रेसिपी है उसे वापस लाया जाए और उसे रेस्टोरेंट टेबल से ही इंट्रोड्यूस करवाया जाए और आपने बिल्कुल सही कहा कि हमारा जो ज्यादातर कंजप्शन है वह जब हम बाहर जाते हैं उसे इनफ्लुएंस होकर ही कर रहे हैं हमारे घर में पास्ता किस तरीके से बनना शुरू हुआ हम जब छोटे थे तो हमारे घर को नहीं बनता था लेकिन हम बाहर जाकर कहते थे और घर जाकर उसकी डिमांड किया करते थे उसके बाद में उसका टेस्ट इंप्रूव होने लगा आप रेसिपीज को टीवी पर देखने लगे उसके शो आने लगे और फिर हमें बाद में यह भी चीज समझ आई कि जो इंग्रेडिएंट्स उसमें डाले जाते हैं पैकेट वाले वह हेल्दी नहीं है हम खुद भी उन्हें बना सकते हैं और फिर बाद में इसका एहसास हुआ कि जो हम पास्ता खरीद रहे हैं उसे भी हम पूरी तरीके से घर में बना सकते हैं । इटालियन पास्ता होता है वह तो खुद अपने घर में बनाते हैं क्योंकि जब हम कहते हैं कि विदेशी खाना अच्छा नहीं है मुझे तो इस बात से भी बड़ी ज्यादा दिक्कत है क्योंकि आप उस खाने का जो असल रूप है उसे तो आपने कभी कंज्यूम ही नहीं किया आप जो खा रहे हैं जो बना रहे हैं वह तरीका गलत है । उसमें डाले जाने वाले इंग्रेडिएंट्स जो आते हैं वह अनहेल्दी हो सकते हैं लेकिन जो उसका मूल है वह तो वही है जो हमारी सेहत के लिए भी इतना हानिकारक नहीं है और स्वाद में भी वह वाकई में से बेहतर है।  अगर पिज़्ज़ा की बात की जाए तो वह काफी ज्यादा हेल्दी है काफी पौष्टिक है हमारे लिए अगर उसे उसके असल तरीके से बनाया जाए और खाया जाए । अगर आप उसे देखेंगे तो वह मूल रूप से रोटी और सब्जी ही है यह जो माइग्रेशन आज हम देख रहे हैं फूड चेन में के जो चीज आज हमारे घर में बन रही है वह कहीं ना कहीं से इनफ्लुएंस होकर बन रही है उसी में हम रिवर्स माइग्रेशन करना चाहते हैं । इस चीज में स्टोरी टेलिंग भी बड़ा ही एसेंशियल पार्ट बन चुका है जैसे आपने एक बड़ा ही अच्छा शब्द उसे किया था कि हर चीज अब "ट्रेंड" बनती जा रही है तो फिर क्यों नहीं उस ट्रेड का ही फायदा उठा लिया जाए। अल्टीमेटली आपका एजेंडा जो पॉजिटिव एजेंडा है वह पूरा होना चाहिए। ऐसी चीज हैं उसके जो इंग्रेडिएंट्स हैं जैसा कि आपने कहा कि उन्हें सेंट्रलाइज करने में बड़ी परेशानी आती है क्योंकि उसे कोई उगा नहीं रहा या लोगों तक वह चीज पहुँच नहीं पा रही है तो उसका भी हमारी काइंडनेस मिल के अंदर हमारा यह सोच है कि हर एक एक चीज तक पहुँच जाए कह सकते हैं ना कि अगर हम सोशल मीडिया की भाषा में बात करें तो उसे कुल बना देना सही होता है। और स्टोरी टेलिंग के जरिए उनका यह बताना कि यह न्यूट्रिशस है इसमें फायदा है। कुछ टाइम पहले ही हम बातचीत कर रहे थे हमारे शहर से तो जो एक मेनू है इंडियन उसमें एक category बन चुकी है अल्टरनेट इंडियन ब्रेड अब यह चीज क्या है यह है आपकी बाजरे की रोटी ज्वार की रोटी, मक्के की रोटी मुझे काफी ज्यादा हास्यास्पद बात लगती है कि हम इसे अल्टरनेट क्यों कह रहे हैं। मैं आपको एक उदाहरण देती हूँ कि पास के ही गाँव में  मीरासी समाज है उनके यहाँ जो रोटी बनती है , वह बारह महीने सोगरा ही खाते हैं बहुत से ऐसे लोगों से मिली हूँ जिन्होंने आज तक कभी गेहूँ की रोटी खाई ही नहीं फिर अल्टरनेट कैसे हो सकता है ये mainstream food chain हुई न। इसी तरह से अगर हम खेती की बात करें एकेडमिकली जिसे हम रासायनिक खेती कहते हैं उसे कहते हैं ट्रेडिशनल या कन्वेंशनल एग्रीकल्चर बताइए यह किस तरीके से ट्रेडिशनल एग्रीकल्चर हुआ और यह चीज कोई ज्यादा पुरानी नहीं है इसमें अगर बदलाव आया है तो पिछले दो-तीन दशक में ही बदलाव हुआ है। किस तरीके से अपने कल्चर अपनी आइडेंटिटी और अपने खाने को किस तरीके से देख रहे हैं उसे पर सवाल करना बहुत जरूरी हो चुका है क्या हम उसे एक अल्टरनेटिव की तरह देख रहे हैं या एक शॉर्ट लीव ट्रेंड बना दिया गया है।

अरमान: अगर हम भारतीय उपमहाद्वीप की बात करते हैं तो सभी के पास अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं अगर हम पौष्टिक आहार की बात कर रहे हैं अगर हम एक शहर में हैं उसमें भी अलग-अलग हिस्सों में उसके अलग-अलग मतलब है एक बड़ा हिस्सा है जिसे स्ट्रीट फूड या फास्ट फूड के अंदर पोषण नजर नहीं आता दवा लिए है कि आपकी नजर में पौष्टिक आहार क्या है या फिर क्या होना चाहिए जिसे हम अपने दिनचर्या का हिस्सा बन सकते हैं? छोटे-छोटे बदलावों के साथ हम उसे और ज्यादा पौष्टिक किस तरीके से बना सकते हैं।

दीपाली: जैसा कि आपने कहा कि सभी की परिभाषाएं अलग-अलग हैं हम दिन भर में जो भी कहते हैं वह पर्सनल इकोनॉमिकल और ज्योग्राफिकल चॉइस है आप जहाँ हैं आपके पास जो साधन है उस हिसाब से आपका खाना डिफाइन होता है और यह चीज सोचा काफी जरूरी है खासकर की इंडिया के कांटेक्स्ट से क्योंकि हम खाने को काफी मोरालिटी से जोड़ते हैं। उदाहरण के तौर पर स्ट्रीट फूड ज्यादातर लोग के लिए अनहेल्दी फूड है या फिर अगर हम आम बोलचाल की भाषा में कहें कि हम उसके साथ नहीं जाते क्योंकि वह अनहेल्दी डाइट कंज्यूम करता है और हमें भी फोर्स करता है खाने के लिए स्ट्रीट फूड और फास्ट फूड के लिए। और अगर हम यहाँ शहरी इलाकों में अगर बात करें तो वह आपसे बातचीत में इस्तेमाल करते हैं क्या तुम अभी डेयरी के प्रोडक्ट्स यूज करते हो और जब कोई व्यक्ति इस तरह की बात करता है तो उसे सामने वाले का पहला तो समझना चाहिए कि वह किस परिवेश से आता है अगर आप स्ट्रीट फूड में भी देखोगे तो आजकल हिंदुस्तान में मेयोनेज नाम की एक चीज बहुत इस्तेमाल की जाती है और यहाँ जब हम उस इस्तेमाल करते हैं तो वह दरअसल एक फैट है लेकिन वह उसका मूल नहीं जिससे उसे बनाया जाता था और जो यहाँ इस्तेमाल किया जाता है जिस तरीके से वह बड़ा ही खराब क्वालिटी का फैट होता है और अगर हम सीधे तौर पर इंडियन चाट की बात करें तो वह काफी हेल्दी होती है वह भी तो स्ट्रीट फूड ही है। और अगर हम राजस्थान के स्ट्रीट फूड की बात करते हैं तो दाल मोठ एक बड़ा ही अच्छा कॉम्बिनेशन बन करके आता है। और तो मैं तो यह भी कहूँगी कि जो पानी पताशा है वह भी बड़ा ही हेल्दी होता है कि अब सवाल फिर वही है क्या आप उसे बनाते किस तरीके से हैं और आप जिस जगह खड़े होकर उसे खा रहे हैं वह कैसी है। और सबसे बड़ी जो चीज मुझे लगती है जो हमें ध्यान में रखनी चाहिए वह होती है सीजनेलिटी हेल्दी न्यूट्रिशस खाना सभी के लिए एक जैसा नहीं हो सकता और यह बात अलग-अलग शहरों की अलग-अलग इलाकों की नहीं अगर आमने-सामने के पड़ोसी भी हैं तब भी उनके लिए वह डाइट अलग हो सकती है और उनके फैमिली बैकग्राउंड पर डिपेंड करेगी। और दूसरी के रीजनल उस सीजन में आपके पास में क्या चीज आ रही है अभी हम जयपुर में देख रहे हैं कि लोगों ने लगातार रागी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और हमें तो पता भी नहीं था यह होता क्या है तो हमारा कभी बनता ही नहीं था पिछले दिनों मेरा भतीजा आया था वह इस बारे में बात करता है क्योंकि उनके घर में बनते थे रागी पैनकेक और उसने मुझे कहा कि मुझे रागी पैनकेक खाने हैं हमने कहा क्या कहते हैं उसे मैंने उसे कहा मुझे चीला बनाना आता है। तो कहने का मतलब यह है कि वह हेल्थ के नाम पर भी अपना कॉन्टेक्स्ट नहीं देखा जा रहा है। यहाँ अगर राजस्थान में भी हमारे पास जो है जवाहर है बाजरा है लेकिन हम क्या खा रहे हैं रागी और वह उगती ही इंडिया के किसी और बेल्ट में है और क्योंकि वह इतनी दूर से यहाँ आता है तो ना तो आपको उसके बारे में कुछ पता है और ना आपको वह बनाना आता है उसे तरीके से जैसे वह असल में बनना चाहिए। तो बात असल में यही आता है कि इस तरह के सवाल करने काफी जरूरी हो जाते हैं क्योंकि धीरे-धीरे ग्राउंड से ही जब हम इस तरह के क्वेश्चनिंग करते हैं तब हम जाकर असल में एक हेल्दी डाइट की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं। क्योंकि एक बात यह भी है कि जो पैकेट में सामान आपको दिया जा रहा है जिसकी मार्केटिंग की जा रही है बहुत बड़े लेवल पर जब आप उसे बनाते हो उसे पैकेट के समान से तो जाहिर तौर पर वह इतना हेल्दी नहीं होता जो कि आपके आसपास में उग रहा हो जो आप जिससे आप परिचित हो और आपको वह खाना और बनाना दोनों आता हो वह आपके लिए हेल्दी होगा। मैं आपको एक और किस्सा बताना चाहूँगी कि हम महाराष्ट्र में गए वहाँ की एक ट्राईबल बेल्ट उस तरफ हम एक डॉक्यूमेंटेशन कर रहे थे और वहाँ छोटे-छोटे 10 - 12 साल के बच्चे वहाँ उन बच्चों को न सिर्फ 40 से 50 सब्जियों के नाम पता है बल्कि आईडेंटिफाई करना आता है उन्हें उनकी पहचान है और वह बच्चे आपको जंगल में लेकर जाएँगे और तोड़ के आपको दे रहे हैं और उसके बारे में बता रहे हैं इसके बाद में मुझे भी एक आदत हुई कि जब मैं रनिंग के लिए यहाँ सेंट्रल पार्क में जाती हूँ और वहाँ काफी सारे पेड़ हैं और मुझे धीरे-धीरे यह मालूम हुआ कि वहाँ काफी पत्ते हैं जिन्हें खा भी सकते हो। लेकिन क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि हमारे आसपास ऐसी चीज भी उग रही है जिन्हें हम आसानी से खा सकते हैं साफ करके। फूड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन यू एन का एक रिपोर्ट है जिसमें यह बताया गया है कि 30000 से ज्यादा ऐसी प्लांट्स स्पीशीज हैं की साइंटिफिकली लोगों को उसके बारे में पता है कि उसे खाया जा सकता है मगर सिर्फ 12 ऐसी प्लांट है जिन्हें जिसमें 75% डाइट का हिस्सा बनाया जाता है अब आप सोचिए कि 30000 में से 12 कितना बड़ा डिफरेंस हमें देखने को मिलता है सीधे तौर पर ही और वह 12 .75% डाइट को इंपैक्ट करता है आपका 75% डाइट सिर्फ उन 12 स्पीशीज पर लायबल कर रहा है यह भी एक बड़ा सवाल है कि जब हमारे पास इतना सब कुछ है फिर भी हम वही गिनी चुनी हुई चीजों को क्यों खा रहे हैं। कहीं ना कहीं हम सबको इनिशिएटिव के तौर पर करना चाहिए आप बाहर जाइए और देखिए कि हम पहले क्या खाया करते थे हमारे घर परिवार में पहले क्या-क्या चीज बनाई जाती थी वह रेसिपीज क्या थी आपके दादा-दादी वह अपने बचपन में किस तरह की डाइट लिया करते थे और वह चीज अगर आज भी हमारे आसपास हैं तो हम उन्हें क्यों नहीं खा रहे हैं हम उनका इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे हैं।

अरमान: आपने एक तरह से साहित्यिक  बात कही है और जो परेशानियाँ हमारे समाज में हैं उन पर भी आपने नजर रखी लेकिन मेरा सवाल यह है कि आप एक फूड रिसर्चर हैं आपकी खुद की खाने को लेकर दिनचर्या क्या है?

दीपाली: मैं बड़ी ही पारंपरिक और संयुक्त मारवाड़ी परिवार से हूँ इसलिए हमारे घर का अगर दिनचर्या बताई जाए तो वह एक आम मारवाड़ी की रहती है इस तरीके से होती है जो कि ज्यादातर मारवाड़ी वेजिटेरियन फूड रहता है और खास तौर पर घर में आपको बताऊँ यह काम करते-करते जो मेरी समझ बनी है उसमें कुछ चीजों में हमने घर में बदलाव लाने की कोशिश की है पहले हम एल्यूमीनियम और स्टील काफी यूज किया करते थे और फिर धीरे-धीरे समझ बनने लगी तो फिर हमारी दादी के पुराने बर्तन थे ब्रास के उसे वापस से इस्तेमाल करना शुरू किया लोहे के बर्तन जो बहुत पहले ही अंदर रख दिए गए थे उन्हें फिर से बाहर निकाला गया और उनका भी उसी तरीके से इस्तेमाल करने लगे हैं और यह भी बड़ी जरूरी चीज होती है कि समझने की कौन से खाने में आपको लकड़ी के चम्मच का इस्तेमाल करना है और कौन से खाने के अंदर आप मेटल के चम्मच इस्तेमाल कर सकते हैं। तो यह बड़े बदलाव घर में काफी ज्यादा अब देखने को मिल रहे हैं इसके अलावा अगर मैं बताऊँ तो हम ज्यादा स्पाइसी फूड कंज्यूम नहीं करते अगर मैं अपने परिवार की बात करूँ और मेरी बात करूँ तो क्योंकि अगर हम देखें तो एक ग्लोबल रिप्रेजेंटेशन भी है इंडियन फूड की कि वह काफी ज्यादा स्पाइसी होता है और स्पाइस में भी कहेंगे हॉट और राजस्थानी खाने के लिए तो यह चीज प्रसिद्ध भी है क्योंकि यहाँ मिर्ची बहुत ज्यादा क्वांटिटी में इस्तेमाल की जाती है लेकिन जब आप में इंटीरियर जाते हैं ना और आप खुद भी गए होंगे ढाणियों में वहाँ कोई गरम मसाला इस्तेमाल नहीं करता है वह ज्यादातर वही हल्दी मिर्ची धनिया यही सब कुछ चीज जो बड़ी ही चुनिंदा है उन्हें ही स्पाइस के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है तो यह जब पैटर्न्स हैं वह यहाँ चेंज हुए हैं हमारे घर में पहले हम भी गरम मसाला इस्तेमाल नहीं करते थे एक लंबे वक्त पहले और इसके अलावा जब मैं बाहर जाती हूँ तो साथ वालों की बात भी यही होती है कि जब खाने की बात आती है तो उनका कहना होता है कि यह तो बहुत ज्यादा हेल्दी ही खाएगा या यह वह पहले से ही मेरा मेन्यू डिसाइड कर लेते हैं लेकिन ऐसा नहीं है और जैसा कि मैं पहले भी कहा कि खाने में आप कौन से इंग्रेडिएंट्स इस्तेमाल कर रहे हो वह सबसे बड़ा फैक्टर बनकर आता है। और अब यहाँ बहुत से आपको ठेले नजर आ रहे होंगे जयपुर में और दिल्ली में भी के वह ₹100 में आपको पूरी एक थाली बना कर देते हैं तो आप वहाँ पर यह चीज का अंदाजा लगा सकते हैं कि उनकी क्वालिटी क्या रही होगी और वह आपको किस तरीके के पोषण दे रहे हैं। और वह कितनी फ्रेश है इन सब चीजों का अगर आप ध्यान रखते हैं तो मुझे नहीं लगता कि फास्ट फूड स्ट्रीट फूड जितना हम सोचते हैं या हमें बताया जाता है उतना वह खराब है अब आप उसका कौन सा फॉर्म खा रहे हो वह जंक है या नहीं यह भी आपको देखना पड़ेगा इन सब चीजों का मैं बहुत ज्यादा ध्यान रखती हूँ।

अरमान: आपने काफी खूबसूरत अनुभव भी बताए अपनी जिंदगी से जुड़े हुए और किस तरीके से उसमें परिवर्तन आया लेकिन अब तक का सबसे बेहतरीन अनुभव क्या रहा आपका क्योंकि आप लगातार स्थानीय लोगों से भी बातचीत करती हैं फूड रिसर्चर के तौर पर वह अनुभव जिसे सोचकर यह लगा कि जो काम कर रहे हैं काफी मजेदार है और शानदार भी।

दीपाली: मैं आपके बीकानेर में ही थी पिछले साल और बीकानेर के आसपास के काफी गाँव में हम गए थे और हम मानसून के वक्त बीकानेर की तरफ थे और मानसून एक ऐसा वक्त है जहाँ जिस वक्त में राजस्थान के अलग-अलग जगह पर खासकर की बीकानेर के आसपास काफी चीज होती है जैसे कि कुंभी है और भी सब्जियाँ हैं और इस डॉक्यूमेंट्री के लिए मैं काफी उत्साहित थी और उस वक्त मुझे बाजरे को डॉक्यूमेंट करना था कि बाजरे की रोटी और खीच और उसके अलावा में साथ में क्या चीज बनती है और किस तरीके से यह पूरा प्रोसेस रहता है क्योंकि यहाँ जयपुर बेल्ट में इतना बाजरा कंज्यूम नहीं किया जाता क्योंकि जितना मारवाड़ में होता है उतना दूसरी तरफ नहीं होता और वहाँ आपकी मीठी बाजरी भी उगती है इन सब चीजों के लिए मैं काफी एक्साइटेड थी मुझे तकरीबन तीन दिन लगे जिन कम्युनिटीज को हम डॉक्यूमेंट कर रहे थे और उस गाँव में स्पिनिंग का काम काफी ज्यादा होता है कतवारिया हुआ करती थी उनके साथ हम वहाँ बैठा करते थे और मुझे तीन दिन लगे उन्हें उस कंफर्ट जोन में लाने के लिए उन्हें सहज करने के लिए कि जब उन्होंने बाजरे के बारे में बात करना शुरू किया क्योंकि कहीं ना कहीं एक बैरियर तो होता ही है कि बाहर से आई है और इंग्लिश में बात कर रही है और इसने पैंट पहन रखी है तो वह फैक्टर बहुत सारे हो जाते हैं और खासकर कि आप जितना इंटीरियर में जाते हो और आखिर में मुझे जाकर एक अम्मा मिली तो उस वक्त वह मुझे रेसिपी लिखवा रही थी उनकी ग्रैंड डॉटर इन लॉ तो वह वहाँ साइड में इस घर में कपड़े धो रही थी तो वह बड़े ही गर्व के साथ में यह कहती हैं कि हम तो यह खा लेते हैं मगर हमने आज तक अपने बच्चों को यह नहीं खिलाया और वह यह बात कहते हुए काफी खुश थे। कहीं ना कहीं उनके कहने का भाव यह था कि हमने अपने बच्चों को उसे गरीबी से बचा लिया कि कम से कम उसे बाजरा तो खाना नहीं पड़ रहा है इतनी अब बुरी हालत नहीं है हमारी फिर से एक बार अगर मैं कहूँ तो यह एक ऐसा मोमेंट था मेरे लिए जो काफी रिफ्लेक्टिव था कि हम उस चीज को गरीबी से कैसे जोड़ रहे हैं हमारे उस खाने को और दूसरी चीज एक शाम को हम एक ढाणी में गए उनका नाम गीता जी है और वह हमें जो ले जा रहे थे मुकेश जी वह बताते हैं कि यह इस गाँव के गरीब परिवारों में से एक है और वह हमें बता रहे थे कि आप यहाँ देख पाएँगे कि गाँव के लोग असल ढंग से अपनी जिंदगी कैसे जीते हैं उनका रहन-सहन और खान-पान क्या है और वह गरीब परिवार देखिए उनकी ढाणी के गेट से उनके घर के मेन गेट तक पहुँचने में हमें तकरीबन एक किलोमीटर चलना पड़ा था वहाँ उनके पास में इतनी जमीन है और मेरे दिमाग में यही सवाल था यह कैसे गरीब हो सकते हैं । जिस रास्ते से हम जा रहे थे क्योंकि मानसून का वक्त था तो वह आसपास का इतना हरा भरा इलाका हो गया था क्योंकि वह खेत भी साथ में ही था तो उन्होंने एक काफी बड़ा रेन वाटर हार्वेस्टिंग बना रखा था। झोपड़ियां कुछ अंदर की तरफ अलग-अलग बना रखी हैं क्योंकि एक बड़ा सारा परिवार है पंखा वहाँ पर नहीं था लाइट कनेक्शन वहाँ नहीं था कनेक्शन के नाम पर वह बल्ब कुछ लटके हुए हैं बाहर की तरफ। और फिर धीरे-धीरे जब बात शुरू हुई तो वह हमें बाहर की तरफ घूमने ले गई तो हम वहाँ पर खुंबी ढूँढ़ रहे हैं । पास ही में लोहिया उग रहा था हमने वह काटा वहाँ पर वह लोग उस चीज की खेती भी नहीं कर रहे हैं यह सब अपने आप उग रहा है फिर उन्होंने एक बड़ी ही खूबसूरत बात कही कि "जांगल देश में खाने की कमी नहीं है देखने की नजर होनी चाहिए" बिल्कुल सही बात है और यह चीज तो हर जगह अप्लाई होती है फिर चाहे वह बीकानेर हो या फिर जयपुर हमारे आसपास बहुत कुछ उग रहा है बस वह नजर खत्म हो चुकी है उसे देखने की यह बड़ा ही एक खूबसूरत इंसिडेंट था और गीता जी के बारे में मैं बहुत सोचती हूँ।

अरमान - कॉलम शब्द संवाद हेतु कीमती समय देने हेतु आपका बहुत आभार ।

दीपाली - बहुत धन्यवाद ।

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