Sunday Column “शब्द संवाद”

Armaan Nadeem
अरमान नदीम
परिचय
मात्र सोलह वर्ष की आयु में लघुकथा की किताब “सुकून” के लेखक अरमान नदीम भारत के सबसे कम उम्र के लघुकथाकार है जिनकी किताब प्रकाशित है तथा इनके नाम एक रिकॉर्ड यह भी दर्ज है कि आप बहुत कम उम्र में राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर , जवाहर लाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी जयपुर तथा राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर से एक साथ पुरस्कृत लेखक है । “शब्द संवाद” कॉलम हेतु देश की चुनिंदा शख्सियात से बातचीत ।
Armaan Nadeem, based in Bikaner, Rajasthan, has surprised everyone with his writing talent and deep thinking at a very young age.
His writing journey started at the age of just 16. At that age, he wrote and published a collection of his short stories called "Sukoon". As soon as this book was published, he set a record and became the youngest short story writer of India.
He received honors from three major literary institutions simultaneously. Thus, he became the youngest writer ever to achieve this feat. These institutions include Rajasthan Sahitya Academy, Jawaharlal Nehru Bal Sahitya Academy and Rajasthani Bhasha, Sahitya and Culture Academy.
Apart from this, he also received the Manuj Depavat Award for his story "Khokho Ni Hatsi". All these honors show how impressive his stories are and how much people appreciate his writing. He has also been awarded the Pandit J.N.B. Award. Sahitya Akademi Award and Rajasthan Sahitya Academy Pardesi Award.

Himanshi
हिमांशी
परिचय
दिल्ली में रहने वाली क्विंट की संवाददाता हिमांशी राजनीति, जाति, अपराध और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर रिपोर्ट करती हैं।
वह गहन ग्राउंड रिपोर्ट और लॉन्गफॉर्म टेक्स्ट और वीडियो डॉक्यूमेंट्री फीचर में माहिर हैं।
पांच साल से अधिक के अनुभव वाली पुरस्कार विजेता पत्रकार हिमांशी अपनी वर्तमान भूमिका में राजनीति, शासन और समाज के बीच के संबंधों की जांच की देखरेख करती हैं।
चुनावी बॉन्ड और भारत के चुनाव आयोग के कामकाज पर उनकी जांच को व्यापक रूप से मान्यता मिली है।
हिमांशी की रिपोर्टिंग ने उन्हें दो बार लैंगिक संवेदनशीलता के लिए प्रतिष्ठित लाडली मीडिया अवार्ड दिलाया है, साथ ही उन्हें द रेडइंक अवार्ड, खोजी पत्रकारिता के लिए एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म अवार्ड और WAN IFRA अवार्ड जैसे अन्य पुरस्कार भी मिले हैं।

Interview
अरमान :- सवाल जवाब का सिलसिला शुरू हो उससे पहले मैं यह जानना चाहता हूं कि अपने पत्रकारिता को ही क्यों चुना?
हिमांशी:- अरमान अगर मैं आपको अपने स्कूल के बाद के सफर के बारे में बताओ कि किस तरीके से पत्रकारिता में शुरुआत पहले अगर मैं अपने एकेडमिक से शुरू करूं तो मैं साइंस की स्टूडेंट हूं उसके बाद में कॉलेज जाना था एडमिशन की तैयारी करनी थी लेकिन मैं मेडिकल को आगे जारी नहीं रखना चाहती थी मैं डॉक्टर नहीं बनना चाहती थी क्योंकि वह चीज आपके स्कूल में ही पता लग जाती है जब आप 2 साल पढ़ाते हैं किसी सब्जेक्ट को उसके बाद में आप फैसला कर लेते हैं कि आगे आपको इसके साथ जाना है या नहीं। और व्यक्ति को यह एहसास हो जाता है कि वो फील्ड ऐसी है जो उसके लिए नहीं है। और इसीलिए मैं आपको बता सकती हूं साहित्य में मुझे शुरुआत से दिलचस्पी रही है मैंने अपने कॉलेज के अंदर अंग्रेजी साहित्य ऑनर्स किया है दिल्ली के मोती लाल नेहरू कॉलेज से। और जब मैं इंग्लिश लिटरेचर पढ़ती थी तो मुझे उसमें दिलचस्पी आई थी फिर चाहे वह शिक्षक हो नॉन फिक्शन हो तो कहीं ना कहीं पूरी तरीके से मेरा झुकाव लिटरेचर की तरफ होने लगा। क्योंकि 3 साल की डिग्री थी और मैं आपको बताऊं कि 2 साल तक तो मैं सिर्फ फिगर आउट ही कर रही थी कि मुझे अब आगे क्या करना है। लेकिन इस दौरान मैं कॉलेज का थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया। और जवाब दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंदर थिएटर करते हैं तो आप स्टेज भी करते हैं स्ट्रीट थिएटर भी करते हैं। और स्ट्रीट थिएटर आते हुए आपका एक सोशल पॉलीटिकल जागरूकता आप में आती है और आपको वह चीज महसूस होने लगती है और आपको यह एहसास होने लगता है कि आसपास किस तरह की परेशानियां समाज में हो रही है। और मुझे उसे वक्त धीरे-धीरे यह एहसास होने लगा कि एक्टिविज्म, आर्ट यह सब चीज मेरे लिए है। और जब मैं अपने बा के फाइनल ईयर में थी तब मुझे यह महसूस हुआ कि आर्ट और एक्टिविज्म इंडिया के अंदर इतना टिकाऊ नहीं है कहने का मतलब यह है कि आपको एक परमानेंट नौकरी नहीं मिल सकती। और एक महिला होने के नाते यह भी जरूरी है क्या आपको एक फाइनेंशली इंडिपेंडेंट मिले। और बहुत ज्यादा रिसर्च करने के बाद में अगर किसी एक प्रोफेशन की तरफ मेरा रुझान हुआ और उसे चीज समझ आई तो वह था जर्नलिज्म। और मुझे यह भी चीज का एहसास हुआ कि जर्नलिज्म ही वह एक प्लेटफार्म का लीजिए या फिर वह चीज का सकते हैं जहां यह सब चीज एक साथ आ सकती है जिन्हें मैं पसंद करती हूं। और यहां क्रिएटिविटी आप अपने ख्याल यहां रख सकते हैं सोशल इश्यूज की तरफ आप कंट्रीब्यूट कर सकते हैं। और क्योंकि आप एक नौकरी भी कर रहे हैं तो फाइनेंशली इंडिपेंडेंट भी आपको इसमें मिलती है तो वह सब चीज जो मैं चाहती थी वह यहां एक साथ हो रही है। और फिर वहीं से मैंने फैसला किया कि पत्रकारिता की जा सकती है। मेरे परिवार में पहले कोई पत्रकारिता से नहीं जुड़ा हुआ तो मुझे इसकी कोई गाइडेंस भी नहीं थी तो जो भी हुआ वह इंटरनेट के थ्रू ही हुआ। और बहुत सारे कॉलेज के मेन एंट्रेंस एग्जाम दिए और आखिर में आईआईएमसी दिल्ली और सेंट जेवियर्स कॉलेज मुंबई के एंटरेंस एग्जाम्स मैंने क्लियर किया और फिर इन दोनों में से किसी एक को चुनने का मेरे पास में मौका था और क्योंकि दिल्ली के अंदर में पहले पढ़ चुकी थी इसलिए मुझे लगा कि बॉम्बे जाना चाहिए और देखते हैं कि मुंबई में किस तरह का कल्चर है नए शहर को एक्सप्लोर करने का ख्याल भी मन में था। वहां से मैं फिर अपना डिप्लोमा किया और डिप्लोमा पूरा होने के बाद में कुछ टीवी चैनल के साथ में मैंने इंटरशिप की। और जिस वक्त में उन टीवी चैनल के साथ मेंटालिशप कर रही थी तो उसे वक्त ही एक रिलाइजेशन भी होने लगा था कि जो मेंस्ट्रीम मीडिया है आप देखिए यह मैं वक्त बता रही हूं 2018 का और उसे वक्त मिनिस्ट्री मीडिया का डाउनफॉल शुरू हो ही चुका था रिपब्लिक नया-नया आया था टाइम्स नाउ कि अगर हम बात करें तो सब एक साथ ही ऐसा चल रहा था। और यह वह समय था जब आपको यह एहसास होने लगा था कि टीवी न्यूज़ में अब कुछ बचा नहीं है। और मुझे यह लग गया था कि अब मैं में सरिता में फिट नहीं हो सकती हूं हम लगातार देख रहे थे कि किस तरह से वहां स्टोरी कवर की जा रही थी। और एक टीवी चैनल में इंटर्नशिप के दौरान मेरा जो एक दिन था उसे वक्त वह माहौल था कि जब इंडियन एयर फोर्स के फाइटर पायलट अभिनंदन पाकिस्तान से वापस लौट रहे थे और जिस तरह का माहौल न्यूज़ रूम में था किस तरह की भाषा का इस्तेमाल वहां किया जा रहा था मैं आपको यह बता सकती हूं कि उसे वक्त मुझे जर्नलिज्म का इतना आईडिया नहीं था लेकिन फिर भी आपको यह तो एहसास होता ही है कि कुछ तो गलत हो रहा है। और उसे दौरान मुझे यह तो पता लग गया कि टीवी चैनल मेरे लिए नहीं है। और अगर हम न्यूज़ चैनल के बाद में न्यूज़ पेपर की बात करें प्रिंट मीडिया के ऊपर जब हम बात करते हैं उनकी सैलरी किस तरीके से होती है यह हम जानते हैं बड़े-बड़े जो न्यूज़ पेपर से उनका यह कहना होता है कि हमारे साथ काम करना ही आपके लिए रिवॉर्ड है बहुत से लोग यह चीज सपोर्ट कर सकते हैं जिनके पास में फैमिली सपोर्ट रहता है या फिर कोई उनके पास में एक बैकअप है लेकिन प्राइमरी जॉब में आप उसे उसे तरीके से नहीं ले सकते। आपको खुद की तरफ से अगर सरवाइव करना है और वह भी दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में तो आप इस तरीके से काम नहीं कर सकते। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि मैं प्रिंट मीडिया में अप्लाई नहीं किया करने की कोशिश की हो लेकिन क्योंकि वहां सबसे बड़ी चीज यह है कि आपको जिस तरीके से सिखाया जाता है आपको लिखना सिखाया जाता है आपकी गलत तरह की ट्रेनिंग होती है। पत्रकारिता की दृष्टिकोण से अगर हम देखें जो चीज आपको प्रिंट में मिल सकती है मुझे लगता है आज भी डिजिटल के पास में वह रिसोर्सेस नहीं है आज भी। लेकिन आखिर मे क्विट को ज्वाइन किया।
अरमान :- मेंस्ट्रीम मीडिया के डाउनफॉल का अपने जिक्र किया और बाकी में यह एक गंभीर विषय है। और मेरा सवाल आपसे यही रहेगा कि जब भी हम पत्रकारिता के सम्मान की बात करते हैं तो हम उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहते हैं लेकिन आज वही स्तंभ लोकतंत्र की नीव हिलाने में लगा हुआ है। इस पूरे घटनाक्रम को टाइम पीरियड को एग्जामिन करते हुए आप क्या कहना चाहेंगे?
हिमांशी:- बिल्कुल अरमान मेंस्ट्रीम मीडिया की जो हालात आज के वक्त में है वह किसी से छुपी हुई नहीं है हर कोई जानता है कि क्या हो रहा है और अगर हम बात करें कि यह क्यों हो रहा है या फिर मैं इसे कहूं कि मेरे हिसाब से यह क्यों हो रहा है की कुछ वक्त मुझे अब इसमें हो चुका है तकरीबन 6 साल से मैं पत्रकारिता से जुड़ी हूं और मुझे भी कई चीजों के बारे में एहसास हुआ है। और मेरी नजर में मिनिस्ट्री मीडिया के डाउनफॉल का सिर्फ यह कारण नहीं है कि कोई पार्टिकुलर पार्टी आज पावर में है और वह उन्हें ज्यादा रेगुलेट करना चाहती है ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि इससे पहले जो सरकारी थी उन्होंने ऐसी कोशिश नहीं की थी ऐसा नहीं है कि जो पहले सरकारें थी उस वक्त के जो जनरलिस्ट थे उनके फेवर में काम नहीं किया करते थे और उस वक्त भी सरकारों के लिए लॉबिंग हुआ करती थी। और अगर मिनिस्ट्री मीडिया का सबसे खराब वक्त आज अगर हम इंडिया में देखते हैं स्वतंत्र भारत के इतिहास में अगर हम देखते हैं तो वह इसलिए हो सकता है एक कारण सबसे बड़ा यह हो सकता है कि सोशल मीडिया आ चुका है क्योंकि जो मीडिया हाउसेस है वह मुझे लगता है पहले से ही एक्जिस्टेंशल क्राइसिस में है और अब आप यह देखिए कि आप किसके साथ कंपटीशन में है पहले जो है अगर हम देखें इंडियन एक्सप्रेस है हिंदू के साथ में कंपटीशन में था दैनिक भास्कर शायद अमर उजाला के साथ कंपटीशन में था एनडीटीवी टाइम्स नाऊ के साथ कंपटीशन में है। अब आप सभी को मिलकर एक चीज के साथ और कंपटीशन में उतरना है जो की है सोशल मीडिया। और सोशल मीडिया के साथ जब आप कंपटीशन में है तो वह जो स्पीड फैक्ट चेकिंग रियलिटी का जो कॉन्सेप्ट आ जाता है तो यह सब चीज एक साथ आपको देखनी पड़ती है और सोशल मीडिया के साथ आप जब कंपटीशन में है या तो आपको वह चीज चुन्नी पड़ेगी आप वक्त लीजिए और एक-एक चीज को वेरीफाई करके और उसके बाद ही आप उन्हें पब्लिश करें। और आप इनफॉरमेशन निकलेंगे बिना किसी सनसनी के फिर चाहे हमें कुछ काम उसे मिले क्योंकि जब सोशल मीडिया पर वही चीज वायरल होगी फिर चाहे वह फेक न्यूज़ ही क्यों ना हो तो वहां पूरा माहौल बदल जाता है। और जब इन सबकी आप फैक्ट चेक करके एक टाइम लेकर आप अपना कंटेंट क्रिएट करते हैं न्यूज़ डालते हैं तो उसका नतीजा सिर्फ यही नतीजा होगा की आपको व्यूज उसके मुकाबले में कम मिलेंगे और बहुत सारे लोग वह रिस्क लेने के लिए तैयार नहीं है। तो सीधी बात यह है कि सोशल मीडिया के साथ आपको स्पीड बना कर रखनी पड़ेगी। दूसरा तो ऑफिस बात है ही की जो पॉलीटिकल प्रेशर बाकी सरकारों से ज्यादा जो पॉलीटिकल प्रेशर आज के वक्त में है। जिस तरीके से इन्वेस्टिगेटिव एजेंसी का इस्तेमाल किया जा रहा है उनका इस्तेमाल करके मीडिया हाउसों पर रेड की गई है एनडीटीवी का आपने पूरा कैसे देखा। यह सब सच्चाई तो डाक्यूमेंट्री है आप इन्हें खुद देख सकते हैं महसूस कर सकते हैं। और यह कह सकते हैं कि इस वक्त ज्यादा प्रेशर है पहले के मुकाबले। और इन सबके अलावा एक और प्रॉब्लम मुझे नजर आती है जो की इंडियन मीडिया का रिवेन्यू सिस्टम है पैसा कहां से आ रहा है अगर आप सबसे ज्यादा निर्भर करते हैं सरकारी विज्ञापनों पर अपनी पब्लिकेशन को चलाने के लिए। तो फिर आपको सरकार के लिए ही काम करना होगा। यह तो एक बहुत ही सिंपल सी चीज हो चुकी है अगर मैं आपको किसी काम के लिए पैसे दे रही हूं तो तो आप फिर मेरे लिए ही काम करेंगे। और एक और चीज जो मैंने अब तक की पत्रकारिता में 6 साल की जो मेरी चटनी रही है उसमें नोटिस किया है वह यह है कि भारतीय मीडिया में ओनरशिप है वह बहुत से मिनिस्ट्री मीडिया में जो डिसीजन मेकिंग पोजीशन पर हैं वहां पर डाइवर्सिटी बहुत कम है और उन पदों पर अधिक प्रभुत्व रखते हैं अपर कास्ट अपर क्लास मैन और इस चीज के ऊपर भी अध्ययन हो चुका है यह ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ इसे अपने एक्सपीरियंस से बता रही हूं। इन सब के बाद में आप यह देखेंगे कि जो मीडिया है वह लार्जर पब्लिक इंटरेस्ट के लिए काम नहीं करेगी वह उन्हीं के इंटरेस्ट के लिए काम करेगी जो लोग वहां रिप्रेजेंटेटिव के तौर पर काम कर रहे हैं। और मुझे ऐसा लगता है यह बहुत सारे कारण मिलकर जो मिनिस्ट्री मीडिया को डाउनफॉल की तरफ धकेल रहे हैं। और यह वाकई में एक बड़ा क्राइसिस का टाइम चल रहा है और न जाने यह कब उसमें से बाहर निकलेगा और सवाल तो यह भी है कि बाहर निकल पाएगा या भी नहीं।
अरमान:- अपने मीडिया हाउसों के रिवेन्यू कलेक्शन की बात की और हाल ही में हमने ए एन आई कैस देखा जो की ए एन आई बनाम युटयुबर्स हो गया इसे आप एग्जामिन करते हुए क्या कहना चाहेंगे?
हिमांशी:- देखिए अगर मैं कहूं कि मैं कंटेंट क्रीटेड नहीं हूं और यह चीज मुझे डायरेक्टली इंपैक्ट नहीं करती है तो उसके बाद में भी मैं यह कहूंगी कि यह बात सच है कि अगर आप किसी का कंटेंट उसे करते हैं एक रिवेन्यू बात होनी चाहिए शेयरिंग डील होनी चाहिए लेकिन इस केस में जो ए एन आई का बिहेवियर रहा वह धमकाने वाला था आप किसी को थ्रेटेन कर रहे है। तो यह जो पूरा कैसे अगर हम देखें तो मीडिया हाउस ए एन आई की तरफ से बिल्कुल भी एथिकल नहीं था। देखिए गलत नहीं है कि अगर आप अपने कंटेंट के लिए किसी से पैसा लेना चाहते हैं लेकिन आपको एक मॉडल डेवलप्ड करना चाहिए था उन कंटेंट क्रिएटर के साथ। आप उनसे मुंह मांगे दम कैसे मांग सकते हैं आपको उनके साथ में बैठी है एक रिवेन्यू शेयरिंग मॉडल बनाया उनसे दोनों तरफ बात होनी चाहिए बहुत सारे ऐसे रास्ते थे जिनसे ए एन आई इन इश्यूज को सॉल्व कर सकता था। लेकिन जो उन्होंने रवैया युटयुबर्स के साथ में दिखाया कि आप बहुत ज्यादा रेवेन्यू उनसे मांग रहे हैं और वह भी बहुत छोटी क्लिप का कुछ चंद सेकेंड्स की जो क्लिप है और उसके बाद मैं अपने स्ट्राइक्स की धमकी देते हैं और उनके चैनल उड़ने की धमकी देते हैं कि आपका चैनल बंद ही करेंगे हम। हम यह भी जानते हैं कि की ए एन आई की किस तरीके से मोनोपोली है पूरी सेक्टर में उन्हें जो एक्सेस मिलता है जिस तरीके का उनके पास में सुविधा है और वह सब आपको इसलिए मिलता है क्योंकि आपके पास में राइट्स है कि बहुत सारी चीज सिर्फ आपके पास में ही है जो औरों के पास में उपलब्ध नहीं है और वह इसलिए नहीं है कि वह अपने एक्स्ट्राऑर्डिनरी अपने रिपोर्टर से कोई काम करवाया हो या आपकी कोई एक्स्ट्रा मेहनत उसमें है वह इसलिए है क्योंकि आपके पास में राइट से उसे चीज को एक्सेस करने के लिए। और यह कोई गलत चीज नहीं है हम इसका चीज का रिस्पेक्ट करते हैं के आपके पास में एक्सेस है लेकिन इन सब के बाद में आप किसी के साथ में इस तरह का रवैया रखेंगे तो यह तो बिल्कुल भी सही नहीं है। और वाकई में बहुत से रास्ते थे इस केस के ऊपर काम करने के लेकिन उन्होंने सबसे खराब रास्ता चुना।
अरमान:- पत्रकारिता के अंदर हम जब इन्वेस्टिगेटिव जनरेशन की बात करते हैं जो सत्ता को पावर में बैठे हुए लोगों को सीधी चुनौती दिया करता था लेकिन आज हम देख रहे हैं वह खुद कहीं चुनौतियों से घिरा हुआ नजर आता है एक तो वह सिक्योरिटी परपज था ही के पत्रकारों को मारने की धमकी और लेकिन आज के वक्त में और किन आधुनिक चुनौतियों से आपको इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म झूंझती हुई नजर आती है?
हिमांशी:- बहुत सारे स्ट्रगल्स हैं इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म में आज के समय में हमारी राजनीतिक व्यवस्था वहां पर प्रदर्शित नहीं है और जब ट्रांसपेरेंसी नहीं है डाटा नहीं है एक्सेस भी नहीं है और बहुत सालों की स्ट्रगल के बाद आरटीआई एक्ट पास हुआ आरटीआई बहुत ही इंर्पोटेंट टूल था इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म में इसके करीब बहुत सारे पत्रकारों ने जो स्टोरी है वह कर की है जो की बहुत ही इंपॉर्टेंट पब्लिक स्टोरी रही है अब अपने धीरे-धीरे आईटीआई एक्ट को इतना डाइल्यूट कर दिया है पतला कर दिया है कमजोर कर दिया है कि अब कोई भी इनफॉरमेशन आरटीआई के जरिए से निकल पाना लगभग इंपोसिबल सा हो गया है इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के लिए जो टूल कई सालों से या यूं कहूं के जिस तरीके का सिस्टम इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म में हुआ था और उन्होंने खुद डेवलप किए थे उन सभी को एक सिस्टमैटिक ढंग से खत्म करने की कोशिश रही है यह तो एक आपका काम करने में ही बधाएं हैं डिफिकल्टी हैं। और इन सबको भी अपने ओवर कम करके कोई रिपोर्ट पब्लिश कर भी दी उसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया आपके सामने आएगी वह पहले नहीं होता था जिस तरीके से आपके ऊपर डिफामेशन केस होंगे जिस तरह की ट्रोलिंग का सामना आपको सोशल मीडिया पर करना पड़ेगा जिस टाइम पीरियड में हम रह रहे हैं उस हम पोस्ट ट्रुथ वर्ल्ड कह सकते हैं जहां सच-सच नहीं है तथ्य तथ्य नहीं है। और अगर आपने कोई अच्छी रिपोर्ट पब्लिश कर भी दी है आपने वहां एक-एक चीज दर्शी है कि यह एबीसी हमारी समस्याएं हैं फिर भी कुछ एक कोई ग्रुप होगा जो सोशल मीडिया पर रहेगा यह झूठ है यह सब गलत है। और एक ट्रोलिंग का साइकिल भी शुरू होगा। तो आप यह देखिए की 360 डिग्री एक रिपोर्टर पर अटैक होता है जब आप एक ऐसी रिपोर्ट पब्लिश करते हैं जो किसी पावरफुल इंसान खिलाफ होती है या उनसे अकाउंटेबिलिटी की डिमांड उसमें की जाती है और मैं जैसा कहा कि यह सिर्फ सरकार के केस में नहीं है बड़े कॉरपोरेट हाउसों के ऊपर रिपोर्ट करें या दूसरे पॉलिटिशियन के ऊपर रिपोर्ट करें इस चीज के लिए आपको तैयार पड़ता है कि आपके ऊपर लीगल अटैक होगा। और अगर आप किसी इंस्टीट्यूशन के लिए पब्लिश कर रहे हैं अगर आप फ्रीलांसर हैं तो आपके पब्लिकेशन को अलग-अलग तरीके दबाव डाला जाएगा। और यह हमने देखा भी है कि किस तरीके से बहुत सारे पब्लिकेशन हैं जिनके खिलाफ केसेस चल रहे हैं तो उन्हें किसी और तरीके से कॉर्नर करने की कोशिश की जाएगी। और यह सब जानते हैं समझते हैं कि यह ऐसा क्यों हो रहा है और यह क्यों हुआ आचनक आपके ऊपर इनकम टैक्स की रेड पड़ जाती है सुद्दनली आपके ऊपर एनफोर्समेंट डायरेक्टेड क्यों रेड करने आ रही है और उसके बाद में एक डर का माहौल बनाया जाता है कि आप आगे से इस तरह की रिपोर्ट पर काम ना करें। और कहीं ना कहीं रिपोर्टर के ख्याल में भी यह चीज आएगी कि अब रहने देते हैं। तो हम यह साफ शब्दों में कह सकते हैं कि इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म करना आज के वक्त में बहुत मुश्किल हो गया है। क्योंकि जैसा कि मैं आपको कहा सबसे पहले तो स्टोरी निकाल पाना ही बहुत मुश्किल हो गया है और उसके बाद में भी आपने वह कर लिया उसके बाद का जो सफर है पब्लिश होने के बाद शायद आप जिस तरह का डर के माहौल का आपको सामना करना पड़ेगा कि पता नहीं क्या हो सकता है मेरे साथ में वह एक अलग तरह की चुनौती होती है। यह तो मैं बड़े शहरों की बात कर रही हूं आप अगर छोटे शहरों में जाएंगे जो पत्रकारिता वहां कर रहे हैं वहां पर एक असल डर का माहौल आता है आपकी जिंदगी के साथ। हमने बस्तर का कैसे देखा। उत्तर प्रदेश की अगर आप हेडलाइंस देखेंगे बहुत सारी जगह पर इस तरह की घटनाएं होती रहती है। आपने किसी विधायक के खिलाफ रिपोर्ट किया या गांव के प्रधान के खिलाफ रिपोर्ट क्या आपने सेंड माफिया के खिलाफ रिपोर्ट तैयार की उसके कुछ वक्त बाद उसे पत्रकार का मर्डर हो जाता है या फिर गायब हो जाता है इनमें से बहुत सी चीज पहले से थी और कुछ अभी हम हाल ही में देख रहे हैं। अरमान :- मीडिया किसी भी केस को किस तरीके से कवरेज देता है यह हम सब जानते हैं फिर चाहे वह क्रिमिनल हो फैमिली केस और एक शब्द भी हमें बहुत सुनने को मिलता है कि अभी तो "मीडिया ट्रायल" चल रहा है और जिससे जाहिर तौर पर आम जनता प्रभावित होती है सवाल यह है क्या कोर्ट भी मीडिया ट्रायल से प्रभावित होता है?
हिमांशी :- मैं इस बात से शत प्रतिशत सहमत हूं कि मीडिया ट्रायल से बहुत सारे केसेस में कोर्ट भी प्रभावित होती है हमने यह चीज सुशांत सिंह राजपूत के केस में देखा रिया चक्रवर्ती और उनके भाई को काफी वक्त तक जेल में रहना पड़ा अगर यह एक नॉर्मल कैसे होता मीडिया ट्रायल इन पर नहीं चला होता अगर इन सबके खिलाफ पब्लिक सेंटीमेंट इस तरीके से नहीं होता तो उन्हें वो वक्त जेल में नहीं बिताना पड़ता तो हम यह साफ तौर पर देखते हुए कह सकते हैं कि ऐसा नहीं है कि मीडिया ट्रायल का सिर्फ पब्लिक पर प्रभाव नही पड़ता है और यह हमने हिस्टोरिकल देखा है की मीडिया ट्रायल से कोर्ट भी काफी हद तक इंपैक्ट हुए हैं। और हम इसमें यह नहीं कह सकते कि यह सिर्फ कुछ दिनों का सर्कस चलता है और बाद में सब नॉर्मल हो जाता है के बहुत हद तक असल जिंदगी में भी परिणाम हमें देखने को मिलते हैं जिसमें निर्दोष लोगों को जेल जाना पड़ता है। और हम यह कह सकते हैं कि मीडिया ट्रायल से कोर्ट प्रभावित होते हैं।
अरमान :- जिस तरीके से हमने इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म पर बात की आपने भी बताया कि जो पत्रकार हैं उन्हें इतना प्रेशर कई बार होता था कि वह उस रिपोर्ट से अपने आप को पीछे रख लेते थे तो क्या आपके साथ खुद ऐसा कभी कोई अनुभव हुआ है जहां आपको पॉलिटिकल या फिर किसी भी तरह का प्रेशर का सामना करना पड़ा हो रिपोर्टिंग को लेकर?
हिमांशी:- हां फेस की है बहुत सारी ऐसी रिपोर्ट होती है बहुत सारी ऐसी चीज होती है जहां करने से पहले आप सोचते हैं कि वह आपको करना चाहिए या नहीं इलेक्टरल बॉन्ड की अगर हम बात करते हैं वहां बहुत सारी कवरेज हुई उसमें से बहुत सारी स्टोरी ऐसी थी मैं नाम नहीं लेना चाहूंगी उन्हें एकदम से आईडेंटिफाई नहीं करना चाहूंगी लेकिन बहुत सारी स्टोरी ऐसी होती हैं जिसमें बिजनेसमैन के नाम आते हैं और फिर एक बार ख्याल आता है दिमाग में पॉलीटिशियंस का जब नाम आता है रिपोर्ट में या किसी पार्टी की अगर हम बात करें यह बहुत सेंसिटिव सब्जेक्ट्स हैं पहले इनके बारे में जिन्होंने रिपोर्ट किया है उन पर किस तरह के एक्शंस हुए हैं और फिर यही चीज ख्याल आता है क्या आपको इस रिपोर्ट के साथ में जाना। और वहां पर जो जिससे आप जुड़े हैं जिन एडिटर के साथ आम कम कर रहे हैं उनका सपोर्ट आपके लिए बेहद जरूरी होता है लकिली मेरे एडिटर और जहां मैं काम करती हूं पब्लिकेशन है जो हमेशा साथ देते हैं। मेरे एडिटर कहते हैं कि अगर आपका रिपोर्ट फेक्चुअल है और आपके पास में एविडेंस है फिर डरने की कोई बात नहीं है। और फिर वहां पर आपकी पब्लिकेशन और एडिटर का जो रोल है काफी जरूरी होता है। जब भी मुझे ऐसा लगा कि इस रिपोर्ट पर काम करना चाहिए या नहीं या फिर उसे पब्लिश करना चाहिए या फिर नहीं तो उन्होंने हमेशा से मुझे बैक सपोर्ट के साथ में कहा है कि बिल्कुल आपको इस रिपोर्ट के साथ में जाना चाहिए यह अगर फेक्चुअल है और पब्लिक इंटरेस्ट के साथ में जाती है तो हम इसे बिल्कुल पब्लिश करेंगे और पूरा साथ आपके साथ रहेगा।
अरमान :- सरकारी विज्ञापनों की आपने चर्चा की और सवाल भी यही बनता है कि जिस तरीके से सरकारी विज्ञापनों का प्रभाव मीडिया हाउसों पर है और एक और उन्हें पाने की लगी हुई हमें देखने को मिलती है इस पर किस हद तक सैंक्शंस लगनी चाहिए आपकी नजर मे?
हिमांशी:- समस्या सबसे बड़ी ही आती है कि अभी जो हमारा रिवेन्यू मॉडल है जिस तरीके से खबरों को भारत में देखा जाता है न्यूज़ के जो कंज्यूमर हैं उनकी एक हैबिट है हमें लगता है न्यूज़ फ्री है। अगर हमारे हाथ में एक न्यूज़ पेपर आता है हम उस न्यूज़पेपर का पैसा देना चाहते हैं ठीक है वह पेपर है वह प्रिंट हुआ है उसकी कीमत है हम उसे न्यूज़पेपर का पैसा देते हैं। न्यूज चैनल की भी अगर हम बात करें तो हम अपनी केबल ऑपरेटर को पैसा देते हैं अगर आप डायरेक्टली सीधे तौर पर न्यूज़ के लिए पैसा आप पार्टिकुलर इस चैनल को देखने के लिए पैसा देंगे शायद लोग ना दे क्योंकि उन्हें लगता है और उन्हें आदत है कि यह फ्री है और अगर हम फिर से डिजिटल की बात करें तो आप इंटरनेट के लिए पैसा देना चाहते हैं जिओ के लिए पैसा देंगे एयरटेल के लिए पैसा देंगे अगर आप शायद एक क्विट मीडिया हाउस के लिए पैसा मांगेंगे तो लोग नहीं देंगे बहुत कम लोग होते हैं जो उसके लिए राज़ी होकर पैसा देते हैं। क्योंकि जब हम बात करते हैं कि सरकारी विज्ञापनों से पैसा आना चाहिए या नहीं आना चाहिए सरकारी इश्तहार लेना चाहिए या नहीं लेना चाहिए तो हमें साथ में यह भी देखना चाहिए कि अल्टरनेट क्या है इस चीज का और एक अल्टरनेटिव यह होता है कि सब्सक्रिप्शन बेस्ट आप एक मॉडल तैयार करें लोगों से सीधा पैसा ले और वह मॉडल डेवलप करने के लिए न सिर्फ इंडिया बल्कि ग्लोबली मीडिया इंड्वार्टी अगर हम देखें तो बहुत पीछे है ऐसे बहुत ही काम मॉडल है जो वास्तव में सक्सेसफुल हुए हैं इसमें। शायद लोग इस वक्त न्यूज़ के लिए पैसा देने के लिए तैयार नहीं है। लेकिन यह हमें तैयार करना पड़ेगा क्योंकि सरकारी एडवर्टाइजमेंट की बात करते हैं सरकार से जब हम पैसा लेने की बात करते हैं और जो सरकार के सपोर्ट से पैसे से चलने वाला मीडिया हाउस है तो वह रिपोर्टिंग तो वह ना तो आज कर पा रहे हैं ना कल कर पाएंगे और आगे भी शायद नहीं कर पाएंगे। अगर आपको एक स्वतंत्र मीडिया हाउस बनाना है आपको डिपेंड होना पड़ेगा अपने व्यूअरशिप पर उनके पैसों पर कंज्यूमर के पैसे पर। जब तक वह नहीं हो रहा है तब तक कुछ अल्टरनेटिव क्या है कि सरकार का या फिर कमर्शियल ऐड ब्रांड से पैसा लीजिए। अगर हम ब्रांड की बात करें तो वह भी काफी हद तक सहयोग नहीं करना चाहते। क्योंकि एक जेनरेशन ऐसी भी है जो न्यूज़ से दूर रहते हैं वह कहते हैं कि हम पॉलिटिकल इन सब में नहीं होना चाहते। जिनके लिए न्यूज़ काफी बेसिक चीज है जिन्हें उसमें कुछ खास दिलचस्पी नहीं है ऐसी भी एक जेनरेशन एक पूरा ग्रुप आफ पीपल है। मान के चलिए कोई शैंपू का ब्रांड है तो वह उसमें एसोसिएट नहीं करना चाहेगा। तो उनके पास में दूसरा रास्ता ही नहीं है बजाय कि वह सरकार के पास जाएं। और अगर हम चाहते हैं कि सरकारी विज्ञापन ना आए तो हमें एक अल्टरनेटिव मॉडल डेवलप करना पड़ेगा।
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